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________________ ४२८ भगवती सूत्र - श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन कल्प है । विहार करते हुए मार्ग में मुनि के पैर में यदि कंकर, पत्थर या कांटा आदि लग ॐ जाय, तो उसे नहीं निकालना चाहिए । इसी प्रकार आंखों में कोई मच्छर आदि जीव, बीज, कंकर या धूल आदि पड़ जाय, तो भी नहीं निकालना चाहिए, किन्तु किसी प्राणी की मृत्यु हो जाने का भय हो, तो उसे निकाल देना चाहिए । विहार करते हुए जहां सूर्य अस्त हो जाय वहीं ठहर जाना चाहिए, चाहे वहाँ जल हो ( जल का किनारा हो या सूखा हुआ जलाशय हो या ऊपर से अनाच्छादित हो), स्थल हो, दुर्गम स्थान हो, निम्न (नीचा) स्थान हो, पर्वत हो, विषम स्थान हो, खड्डा हो, या गुफा हो, सारी रात वहीं व्यतीत करनी चाहिए। सूर्यास्त के बाद एक कदम भी आगे नहीं बढ़ना चाहिए | रात्रि समाप्त होने पर सूर्योदय के पश्चात् अपनी इच्छानुसार किसी भी दिशा की ओर ईर्यासमितिपूर्वक विहार कर दें । सचित्त पृथ्वी पर निद्रा न लेनी चाहिए । सचित पृथ्वी का स्पर्श करने से हिंसा होगी जो कि कर्मबन्ध का कारण है । यदि रात्रि में लघुनीति की शंका उत्पन्न हो जाय, तो पहले से देखी हुई भूमि में जाकर उनकी निवृत्ति करे और वापिस अपने स्थान पर आकर कायोत्सर्ग आदि क्रिया करे । किसी कारण से शरीर पर संचित रज लग जाय, तो जबतक प्रस्वेद ( पसीना ) आदि से वह ध्वस्त - अचित न हो जाय, तबतक मुनि को पानी आदि लाने के लिए गृहस्थ के घर न जाना चाहिए। इसी प्रकार प्रासुक जल से हाथ, पैर, दांत, आंख, मुख आदि नहीं धोना चाहिए, किन्तु यदि किसी अशुद्ध वस्तु से शरीर का कोई अंग लिप्त हो गया हो, तो उसको प्रासुक पानी से शुद्ध कर सकता है, अर्थात् मलादि से शरीर लिप्त हो गया हो और स्वाध्यायादि में बाधा पड़ती हो, तो प्रासुक पानी से अशुचि को दूर कर देना चाहिए । विहार करते समय मुनि के सामने यदि कोई मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, बैल, महिष (भैंसा ), सूअर, कुत्ता, सिंह आदि आजाय, तो उनसे डर कर मुनि को एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिए, किन्तु कोई हरिण आदि जीव भद्रता से सामने आते हो, तो मुनि को चार हाथ पीछे हट जाना चाहिए अर्थात् उन प्राणियों को किसी प्रकार का भय उत्पन्न न हो, इस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिए । पडिमाधारी मुनि, शीतकाल में किसी ठण्डे स्थान पर बैठा हो, तो शीत निवारण के लिए उसे धूप युक्त गरम स्थान पर न जाना चाहिए। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में गरम स्थान से उठ कर ठण्डे स्थान में न जाना चाहिये, किन्तु जिस समय जिस स्थान पर बैठा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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