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________________ ४८ भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ नारकों के भेद चयादि सूत्र आदि द्रव्यों में कर्म द्रव्य ही सूक्ष्म है । यद्यपि कर्म वर्गणा चतुःस्पर्शी है और वह हमें दिखाई नहीं देती, तथापि ज्ञानीजन उसे देखते हैं और उनमें अणुत्व और बादरत्व का भी भेद देखते हैं। उन दिव्य ज्ञानियों की अपेक्षा ही कर्म द्रव्य को अणु और बादर कहा गया है। .. इसके पश्चात् गौतम स्वामी पूछते हैं कि हे भगवन् ! नारकी जीव कितने प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं ? ___ भगवान् फरमाते हैं कि-हे गौतम ! आहार द्रव्य की अपेक्षा अणु और बादर इन दो प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं । यहां अणु का अर्थ 'छोटा' करना चाहिए। आहार के कई पुद्गल छोटे होते हैं और कई मोटे होते हैं । चय की तरह उपचय का भी कथन कर देना चाहिए । शरीर का आश्रय लेकर ही चय और उपचय होता है । आहार द्वारा शरीर का पुष्ट होना चय कहलाता है और विशेष पुष्ट होना उपचय कहलाता है। शरीर का चय, उपचय आहार द्रव्य से ही होता है, दूसरे द्रव्य से नहीं। इसीलिए चय और उपचय के आलापक में 'आहारदव्ववग्गणमहिकिच्च' ऐसा पाठ दिया है अर्थात् आहार द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा से शरीर में चय, उपचय होता है। कर्मद्रव्यकर्गणा की अपेक्षा उदीरणा, वेदना और निर्जरा भी दो ही प्रकार के पुद्गलों की होती हैं-अणु और बादर की। फिर गौतम स्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! नारकी जीवों ने कितने प्रकार के पुद्गलों का अपवर्तन किया, अपवर्तन करते हैं और अपवर्तन करंगे ? . भगवान् ने उत्तर दिया कि-हे गौतम ! कर्म-द्रव्य वर्गणा की अपेक्षा से दो प्रकार के कर्मपुद्गलों का अपवर्तन किया, अपवर्तन करते हैं और अपवर्तन करेंगे-अणु और बादर का । अपवर्तन के साथ उपलक्षण से 'उद्वर्तन' का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। - अध्यवसाय विशेष के द्वारा कर्म की स्थिति आदि को कम करना अपवर्तना करण यहाँ अहमदाबाद वाली प्रति में 'उयट्टिसु उयटेंति उयट्टिस्संति' ऐसा पाठ दिया है और 'आगमोदय समिति' द्वारा प्रकाशित प्रति में 'उट्टिसु उव्व ति उवट्टिस्संति' ऐसा पाठ दिया है । हमारी समझ से इन तीनों कालों के रूपों में एक रूपता रहनी चाहिए । अतः ऐसा पाठ ठीक प्रतीत होता है-'उबट्टिसु उन्बट्रेति उव्वट्रिस्संति'। जिसका अर्थ टीकाकार ने किया है-'अपवर्तन किया, अपवर्तन करते हैं, अपवर्तन करेंगे। ऐसा अपवर्तन अर्थ करके उपलक्षण से उद्वर्तन का ग्रहण किया है। ऐसा अर्थ शब्दार्थ और भावार्थ में समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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