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________________ २६८ भगवती सत्र-श..उ.६ क्रिया विचार इस क्रम को एक दम उल्टा कर देना पश्चानुपूर्वी कहलाती है। जैसे कि-पांच, चार, तीन, दो, एक । एक दम उल्टा या एक दम सुल्टा क्रम न होना 'अनानुपूर्वी' कहलाती है, जैसे कि-दो, पांच, एक, चार, तीन आदि . . यह प्राणातिपात क्रिया. का समुच्चय विचार हुआ । नैरयिक जीवों के सम्बन्ध में सब प्रश्नोत्तर पूर्वोक्त सामान्य जीव के समान ही समझना चाहिए। किन्तु नारकी जीवों के सम्बन्ध में छहों दिशाओं का स्पर्श कहना चाहिए क्योकि त्रसनाड़ी में होने के कारण अलोक के अन्तर का व्याघात यहाँ नहीं होता है। एकेन्द्रिय जीवों के पांच दण्डकों को छोड़ कर शेष सब दण्डकों के सम्बन्ध में नारकी जीवों के समान ही कथन समझना चाहिए । एकेन्द्रिय जीवों में समुच्चय जीव की तरह छह दिशाओं का और तीन आदि दिशाओं का स्पर्श कहा गया है । एकेन्द्रिय जीवों को कदाचित् तीन दिशा की क्रिया भी लगती है, कदाचित् चार दिशा की और कदाचित् पांच दिशा की भी क्रिया लगती है तथा उत्कृष्ट छह दिशा की क्रिया लगती है। जिस प्रकार प्राणातिपात से क्रिया लगती है, उसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान आदि अठारह ही पापस्थानों से क्रिया लगती है । अठारह पापों में क्रोध, मान, माया, लोभ का नामोल्लेख कर देने पर भी राग और द्वेष का कथन अलग किया गया है । इसका कारण यह है कि जिस अप्रीति में क्रोध और मान दोनों का समावेश हो जाता है वह द्वेष कहलाता है । जिस प्रेम (आसक्ति) में माया और लोभ दोनों का समावेश हो जाता है वह 'राग' कहलाता है। . मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे 'अरति' कहते हैं और मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न विषयानुराग को 'रति' कहते हैं । लड़ाई झगड़े को 'कलह' कहते हैं । असद्भूत दोषों को प्रकट रूप में जाहिर करना 'अभ्याख्यान' कहलाता है । असद्भूत दोषों को गुप्त रूप से जाहिर करना, किसी की पीठ पीछे दोष प्रकट करना 'पैशुन्य' कहलाता है। दूसरे की बुराई करना, निन्दा करना 'परपरिवाद' कहलाता है। माया पूर्वक झूठ बोलना 'मायामृषावाद' है । दो दोषों के संयोग से यह पापस्थानक माना गया है । • नवकार मन्त्र की जो आनुपुर्वी पुस्तिका है उसमें १२० भंग (कोष्ठक) हैं। उनमें पहला भग मानुपूर्वी है, जो कि इस प्रकार हैं-|२|३||५| सब से अन्तिम अर्थात् एक सौ बीसवाँ भग (कोष्ठक) पश्चानुपूर्वी है । जो कि इस प्रकार है-1५||शश। इन दो भंगों को छोड़कर शेष ११८ भंग अनापूर्वी है । पहले भंग की अपेक्षा लेकर इसका नाम 'आनुपूर्वी' पुस्तिका है। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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