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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ श्रमणों के काक्षा- मोहनीय हिसा कहा है । यह कैसे ? इस शंका का समाधान यह है कि इस गाथा में हिंसा का जो लक्षण बताया गया है वह द्रव्य हिंसा का नहीं, किंतु द्रव्य और भाव दोनों हिंसा का है। केवल द्रव्य हिंसा का लक्षण तो जीव का मरना है । यह लक्षण प्रथम भंग में घटित हो जाता है । इसलिए हिंसा के लक्षण में सन्देह करने का कोई कारण नहीं है । दूसरा भंग है - द्रव्य से हिंसा नहीं, परन्तु भाव से हिंसा । जैसे- 'तन्दुलमच्छ' । यह मच्छ, मच्छलियों को खा जाने का विचार तो करता है, परन्तु मारता नहीं है । इसमें द्रव्य हिंसा तो नहीं हुई, किन्तु भावहिंसा अवश्य हुई। हिंसा का तीसरा भंग और चौथा भंग स्पष्ट ही है । २०१ ११ नयान्तर -नंगम, संग्रह आदि सात नय हैं । इनके संक्षेप में दो भेद हैं-१ द्रव्याथिंक और २ पर्यायाथिक । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जो वस्तु नित्य है, वहीं वस्तु पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य है । यहां यह शंका हो सकती है कि एक ही वस्तु में नित्यता और अनित्यता ये दो विरोधी धमं कैसे रह सकते हैं ? इस शंका का समाधान यह है कि एक ही वस्तु में नित्यता और अनित्यता, ये दोनों भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से घटित होती है । अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा वस्तु अनित्य है । एक ही समय में एक ही वस्तु में भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से विरुद्ध धर्मों का समावेश होता है । यह बात लोक में भी प्रसिद्ध है कि एक ही आदमी अपने पिता की अपेक्षा पुत्र कहलाता है और अपने पुत्र की अपेक्षा वह पिता कहलाता है । इसलिए अपेक्षा भेद से वस्तु में विरुद्ध धर्म रह सकते हैं। इसमें शंका की कोई बात नहीं है । • Jain Education International १२ नियमान्तर - नियम का अर्थ है- 'अभिग्रह' । इसमें इस प्रकार शंका हो सकती है कि- एक ही नियम करना, फिर दूसरे नियम करने की क्या आवश्यकता है ? जैसे- जब साधुपन अंगीकार कर लिया तब सब प्रकार के सावद्य योग का प्रत्याख्यान कर लिया है, फिर पोरिसी, दो पोरिसी आदि का पच्चक्खाण क्यों किया जाता है ? सर्वविरति सामायिक करने में सब गुण आ चुके, फिर शास्त्र में पोरिसी आदि का त्याग क्यों बतलाया गया है ? इस शंका का समाधान यह है कि सर्व विरति सामायिक होने पर भी पोरिसी आदि का पच्चक्खाण करना ठीक ही है। क्योंकि सर्वविरति सामायिक कर लेने पर भी प्रमोद का नाश करने वाले और अप्रमाद गुण की वृद्धि करने वाले पोरिसी आदि पच्च For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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