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________________ २०२ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ श्रमणों के कांक्षा-मोहनीय क्खाण करना ही चाहिए । जैसा कि कहा है सामाइए वि हु सावज्जचागरूवे उ गणकरं एयं । अप्पमायवुड्ढिजणगत्तणेणं आणाओ विष्णेयं ।।। अर्थ-सर्व सावद्य त्याग रूप सामायिक के होने पर भी पोरिसी आदि का पच्चक्खाण करना गुणकारक है । क्योंकि ऐसे नियम अप्रमत्त गुण को बढ़ाने वाले हैं । अतः ये जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा में है। - सामायिक में अवगुण ग्रहण करने का त्याग किया है, गुण ग्रहण करने का त्याग नहीं किया है । अतः गुण ग्रहण करने के जितने भी नियम धारण किये जाय, अच्छा ही है। १३ प्रमाणान्तर-शास्त्र में प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान-ये चार प्रमाण माने गये हैं । इनमें शंका इस प्रकार होती है कि-प्रत्यक्ष भी प्रमाण है और आगम भी प्रमाण है । किन्तु इन दोनों में विरोध प्रतीत होता है, जैसा कि आगम में कहा है कि-सूर्य सुमेरु पर्वत की समतल भूमि से आठ सौ योजन ऊपर घूमता है । किन्तु प्रत्यक्ष में सूर्य . पृथ्वी से निकलता हुआ दिखाई देता है । इन दोनों में कौनसा प्रमाण सच्चा है ? इसका समाधान यह है कि जिस तरह से हम सूर्य को पृथ्वी से निकलता हुआ देखते हैं । यह प्रत्यक्ष सत्य नहीं है, भ्रांत है, क्योंकि दूर की वस्तु बहुत छोटी दिखाई देती है और उसके विषय में भ्रांति भी हो सकती है। सूर्य हमसे बहुत दूर है । इसलिए उसके विषय में भ्रांति होजाना संभवित है । आगम में कही हुई बात सत्य है। इन सब कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय का वेदन करते हैं । यद्यपि कांक्षामोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय है और श्रमणं निर्ग्रन्थों में मिथ्यात्व नहीं होता है, इसलिए उन्हें दो ही क्रिया लगती है,-१ आरम्भिकी और २ मायाप्रत्यया । तथापि उनके दर्शनमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व तो है, और क्षयोपशम में मिथ्यात्व मोहनीय के प्रदेशों का किञ्चित् उदय भी रहता है, इससे कांक्षामोहनीय का वेदन होना सहज है। कांक्षामोहनीय के वेदन रूप शंका आदि होने पर उनका समाधान कर लेना चाहिए। यदि किसी समय शंका का समाधान करने वाला न मिले, तो ऐसा विचार करना चाहिए कि-'जिनेन्द्र भगवान् ने जो फरमाया है वह सत्य और निःशंक है' । ऐसा विचार कर तद्नुसार आचरण करने वाला जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है। ॥ प्रथम शतक का तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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