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भगवती सूत्र-शं. २ उ.८ चमरचेचा राजधानी
"तिर्यगलोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वतः" . तिर्छालोक में जाने के लिए जिस पर्वत पर आकर चमर उत्पतन करना है-उड़ता है उसको उत्पात पर्वत कहते हैं।
लवण समुद्र के बीच में पूर्व दिशा में 'गोस्तुभ' नाम का पर्वत नागराज का आवास पर्वत है । उसके आदि भाग का विष्कम्भ १०२२ योजन, मध्य का ७२३ और अन्तिम ४२४ योजन. है, किन्तु इस उत्पात पर्वत के आदि भाग का विष्कम्भ १०२२ योजन, बीच भाग का ४२४ और अन्तिम भाग का विष्कम्भ ७२३ योजन है । इसके मूल का परिक्षेप ३२३२ योजन से कुछ कम है। मध्य भाग का परिक्षेप १३४१योजन से कछ कम है, और ऊपर के भाग का परिक्षेप २२८६ योजन से.किञ्चित् विशेषाधिक है । यह पर्वत बीच में पतला है। इसका आकार उत्तम वज़ के आकार समान है। अथवा मुकुन्द' नाम के बाजे के समान है । आकाश स्फटिक के समान निर्मल है । यहां मूलपाठ में 'यावत्' शब्द दिया है जिससे इतने विशेषण और लेने चाहिए-'सण्हे लण्हे घट्टे मढे णिरए णिम्मले णिपके णिक्कंकडच्छाए सप्पभे समिरिईए सउज्जोए पासाईए।' इनका अर्थ इस प्रकार है-'सण्हेश्लक्षणः' चिकने पुद्गलों से बना हुआ होने के कारण चिकना है। 'लण्हे-मसृण'-मुंहाला । 'घठे-घृष्ट'-शाण पर चढ़ा कर घिस कर तैयार किये हुए हीरे आदि के समान । 'मठेमृष्ट' सुकुमाल शाण पर चढ़ाये हुए जवाहरात के समान चिकना और साफ । 'णिरए' नीरज-रज रहित । 'णिम्मले' निर्मल। 'णिप्पंके' निष्पङ्क-कीचड़ रहित । 'णिक्कंकडच्छाए' निरावरण दीप्ति-शुद्ध कान्ति वाला । 'सप्पमें सत्प्रभाव-अच्छी प्रभा वाला। 'समिरिईए' सकिरण-किरणों वाला । 'उज्जोए' सउद्योत-समीप के पदार्थों को प्रकाशित करने वाला। 'पासाईए' प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला । ऐसा वह उत्पात पर्वत है। वह पावरवेदिका से वेष्टित है। उस वेदिका की ऊंचाई आधा योजन है। उसका विष्कम्भ पांच सौ धनुष है। वह सर्वरत्नमयी है। उसका परिक्षेप तिगिच्छकूट के ऊपर के भाग का जितना परिक्षेप है, उतना है। इस प्रकार संक्षेप में उस उत्तम पद्मवरवेदिका का वर्णन है।
. तस्स णं तिगिच्छकुडस्स उप्पायपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णओ। तस्स णं बहुसमरमणिज्जरस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं एगे पासायवडिंसए
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