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________________ भगवतीसूत्र-श. १ उ. ३ काक्षा-मोहनीय कर्म प्रकार चय, चय किया, चय करते हैं, चय करेंगे। उपचय, उपचय किया, उपचय करते हैं, उपचय करेंगे। उदीरणा की, उदीरणा करते हैं, उदीरणा करेंगे । वेदनकिया, वेदन करते हैं, वेदन करेंगे। निर्जीर्ण किया, निर्जीर्ण करते हैं, निर्जीर्ण करेंगे। इन सब पदों का कथन करना चाहिए। . गाथा का अर्थ इस प्रकार है-कृत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण इतने अभिलाप यहाँ कहना है। इनमें से कृत, चित, उपचित में एक एक के चार चार भेद हैं अर्थात् सामान्य क्रिया, भूतकाल की क्रिया, वर्तमान काल की क्रिया और भविष्यकाल की क्रिया। पिछले तीन पदों में सिर्फ तीन काल सम्बन्धी क्रिया कहनी चाहिए। विवेचन-दूसरे उद्देशक के अन्त में असंज्ञी जीव के आयुष्य का विचार किया गया है। आयु, मोह रूपी दोष से बंधता है। जब आयु का बन्ध होता है तब आठों ही कर्मों का बन्ध होता है। अतएव आयु वन्ध के बाद कांक्षामोहनीय कर्म का विचार किया जाता है। प्रथम शतक के प्रारम्भ में उद्देशों सम्बन्धी जो संग्रह गाथा कही गई थी, उसमें तीसरे उद्देशक के लिए 'कंखपओस' नाम दिया गया है। तदनुसार यहां कांक्षामोहनीय कर्म का विचार किया जाता है। __ जो कर्म जीव को मोहित करता है और मूढ़ बनाता है उसे मोहनीय-कर्म कहते हैं। मोहनीय-कर्म के दो भेद हैं-चारित्र-मोहनीय और दर्शन-मोहनीय । यहां चारित्र-मोहनीय कर्म के विषय में प्रश्न नहीं है । इसलिए मोहनीय शब्द के साथ 'कांक्षा' शब्द लगाया है। कांक्षामोहनीय का अर्थ है-दर्शनमोहनीय । यहां 'कांक्षा' का अर्थ है, 'अन्यदर्शनों की इच्छा करना' । जैसे कोई सोचता हैजैनधर्म वैराग्य की ओर प्रेरित करता है और संसार के आमोद प्रमोदों के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है, किन्तु चार्वाक (नास्तिक) मत कितना सुन्दर है, जो 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्'ऋण करके भी खूब घी पीओ' का उपदेश देता है और सांसारिक सुख भोग का समर्थन करता है । उसमें परलोक का भी कुछ भय नहीं है । वह कहता है कि-'भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः'-जला हुआ शरीर दूसरे भव में आता नहीं है और आत्मा का अस्तित्व है ही नहीं । ऐसी अवस्था में जैनधर्म को त्यागकर चार्वाक मत' को ग्रहण करना अच्छा है । इत्यादि रूप से विचार करना-कांक्षामोहनीय कर्म' कहलाता है। संशयमोहनीय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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