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भगवती सूत्र-श. १ उ. २ मनुष्य के आहारादि
कहलाता है । जिसमें चारित्र की क्रिया नहीं है वह असंयत है । जो देश चारित्र की आराधना करता है, जिसके अणुव्रत हैं परन्तु महाव्रत नहीं हैं वह संयतासंयत (श्रावक) कहलाता हैं।
जो संयम का पालन करता है, किन्तु संज्वलन कषाय का क्षय या उपशम नहीं हुआ है, वह 'सरागसंयत' कहलाता है । जिसके सम्पूर्ण कषाय का सर्वथा क्षय या उपशम होगया है उसे क्रमशः 'क्षीणकषायी वीतराग संयत' और 'उपशान्त कषायी वीतराग संयत' कहते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान वाले उपशांत कषायी वीतराग कहलाते हैं और बारहवें, तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवाले क्षीण कषायी वीतराग कहलाते है। ....
___ वीतराग संयत कर्मबन्ध की कारणभूत क्रिया से रहित होते हैं । यद्यपि सयोगी अंवस्था में योग की प्रवृत्ति से होनेवाली ईर्यापथिक क्रिया उनमें विद्यमान है, परन्तु वह क्रिया नहीं के बराबर है और इन पांच क्रियाओं में उसकी गणना नहीं है।
अप्रमत्त संयत में सिर्फ एक मायाप्रत्यया होती है, क्योंकि वह क्षीण कषायी नहीं है। उसमें कषाय अवशिष्ट है । कषाय के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया कहलाती है। . यहां पर टीकाकार ने यह बात कही है कि:
"कदाचिदुड्डाहरक्षणप्रवृत्तानामक्षीणकषायत्वादिति"' अर्थात्-उड्डाह (धर्म पर आया हुआ कलंक एवं धर्म की होती हुई हंसी) से रक्षण के निमित्त 'अप्रमत्त-संयत मायाप्रत्यया क्रिया का सेवन करते हैं, क्योंकि उनके कषाय अभी क्षीण नहीं हुए हैं।
किन्तु टीकाकार की यह बात आगम से मेल नहीं खाती है, क्योंकि अप्रमत्त अवस्था में आहारक लब्धि का भी प्रयोग नहीं करते हैं, तो फिर जानबूझकर प्राणवध सरीखी क्रिया में तो प्रवृत्ति करे ही कैसे ? और यह क्रिया दशवें गुणस्थान तक है फिर 'उड्डाह' रक्षक कार्य की संगति वहां तक कैसे बैठेगी? इसलिए अप्रमत्त संयत में तो यह क्रिम कषाय के सीव से ही लगती है, विपरीत प्रवृत्ति के कारण नहीं। प्रमत्त संयत को आरम्भिकी और मायाप्रत्यया ये दो क्रियाएँ लगती हैं।
"सर्व प्रमत्तयोग आरम्भः" अर्थात्-सब प्रमत्तयोग औरम्भ रूप है । प्रमत्तसंयत में प्रमाद का अस्तित्व है। इसलिए उसे आरम्भिकी क्रिया लगती है। उसके संज्वलन कषाय का सर्वथा क्षय या उपशम नहीं हुआ है, इसलिए उसे 'मायाप्रत्यया' क्रिया लगती है।
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