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भगवती सूत्र-श. १ उ. ६ स्नेहकाय
हाँ, भगवन् ! हो जायगी। . .
इसलिए हे गौतम ! मैं कहता हूँ--यावत् जीव और पुदगल परस्पर घटित होकर रहे हुए हैं।
विवेचन-लोक स्थिति का अधिकार होने से अथवा 'अजीवा जीवपइट्टिया' इन चार पदों का विवेचन करने के लिए गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं ? एक दूसरे से मिले हुए हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-हाँ, गौतम ! जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं यावत् परस्पर एक दूसरे से मिले हुए हैं। इसका कारण यह
स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुना श्लिष्यते यथा।
गात्रं रागद्वेषक्लिनस्य, कर्मबन्धो भवत्येवम् ॥ अर्थात् - जिस प्रकार कोई पुरुष शरीर पर तेल चुपड़ कर आंधी में बैठ जाय, तो उसका शरीर रेत से भर जाता है, उसी प्रकार जो पुरुष रागद्वेष युक्त होता है, उसके कर्मों का बन्ध होता हैं।
जैसे तेल लगे शरीर पर रज लग कर मैल रूप हो जाती है, वैसे ही जीव में रागद्वेष रूपी चिकनाई है और कर्मरज सर्वत्र भरी हुई है ही, इसीसे वह जीव के साथ चिपक जाती है । सिद्ध भगवान् में रागद्वेष की चिकनाई नहीं है, अतएव उनको कर्मरज नहीं लगती।
इसी बात को दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है-जैसे कोई पुरुष जल से परिपूर्ण यावत् लबालब भरे हुए किसी तालाब में छिद्रों वाली एक नाव डाले, तो उन छिद्रों से पानी आते आते वह नाव पानी में डूब जाती है और तालाब के तल-भाग में जाकर बैठ जाती है। फिर जिस तरह नाव और तालाब का पानी एकमेक होकर रहता है, उसी तरह जीव और पुद्गल परस्पर संबद्ध, प्रतिबद्ध यावत् एकमेक होकर रहते हैं।
सिद्धों के शरीर नहीं है । शरीर कर्म से होता है और सिद्धों में कर्म नहीं हैं अतएव शरीर भी नहीं है।
स्नेहकाय २२८ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! सया समियं सुहुने सिणेहकाये
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