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________________ ४६० भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ परिचारणा देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ; नो अप्पणामेव अप्पाणं विउब्विय विउब्विय परियारेइ, एगे विश्य णं जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेएइ, तं जहाः- इत्थिवेयं वा पुरिसवेयं वा, जं समयं इत्थवेयं वेएइ णो तं समयं पुरिसवेयं वेएइ, जं समयं पुरिसवेयं वेएइ णो तं समयं इत्थिवेयं वेएइ, इत्थिवेयस्स उदपणं नो पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स उदरणं नो इत्थिवेयं वेएइ, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं वेएइ, तं जहाः - इत्थीवेयं वा पुरिसवेयं वा । इत्थि, इत्थवेएणं उदिष्णेणं पुरिसं पत्थे, पुरिसो, पुरिसवेएणं उद इत्थ पत्थे, दो वि ते अण्णमण्णं पत्येति, तं जहा:इत्थी वा पुरिसं, पुरिसे वा इत्थि । विशेष शब्दों के अर्थ - नियंठे - निग्रंथ, परियारेइ-परिचारणा करता है-विषय सेवन करता है, अप्पणिच्चियाओ - अपनी खुद की । अभिजुंजिय- वश करके, दूरगतिसु-दूरजाने की शक्ति, उदिष्णेणं - उदय होने पर, पत्येइ - प्रार्थना करता है - चाहता है । भावार्थ - २४ प्रश्न - हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते है, प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ ( मुनि) मर कर देव होता है । वह देब दूसरे देवों के साथ और दूसरे देवों की देवियों के साथ परिचारणा ( विषयसेवन ) नहीं करता । इसी प्रकार वह अपनी देवियों को भी वश करके उनके साथ भी परिवारणा नहीं करता है, किन्तु वह देव, वैक्रिय से अपने ही दो रूप बनाता है, जिसमें एक रूप देव का बनाता है और एक रूप देवी का बनाता है । इस प्रकार दो रूप बना कर वह देव, उस वैक्रिय-कृत (कृत्रिम) देवी के साथ परिचारणा करता है । इस प्रकार एक जीव, एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दो वेदों का अनुभव करता है। हे भगवन् !. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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