SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षामोहनीय . स्वात्मा को सुख प्रिय है, वैसा परात्मा को भी सुख प्रिय है ? भगवान् ने फरमाया किहाँ, गौतम ! जैसे स्वात्मा को सुख प्रिय है, वैसा परात्मा को भी सुख प्रिय है। अथवा-'एत्थ' और 'इह' ये दोनों शब्द 'एतद्' शब्द से बने हैं। ये दोनों समानार्थक हैं । इन दोनों का अर्थ है-प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली वस्तु । अर्थात् आपकी सेवा में रहे हुए ये श्रमण और गृहस्थ आदि दोनों ही प्रत्यक्ष-सामने हैं । कांक्षामोहनीय के बन्धादि ... १२६ प्रश्न-जीवा णं भंते ! कंखामोहणिजं कम्मं बंधति ? .१२६ उत्तर-हंता, गोयमा ! बंधति । १२७ प्रश्न-कह णं भंते ! जीवा कंखामोहणिजं कम्मं बंधति ? १२७ उत्तर-गोयमा ! पमादपञ्चया, जोगनिमित्तं च । १२८ प्रश्न-से णं भंते ! पमाए किंपवहे ? १२८ उत्तर-गोयमा ! जोगप्पवहे । . १२९ प्रश्न-से णं भंते ! जोए किंपवहे ? १२९ उत्तर-गोयमा ! वीरियप्पवहे । १३० प्रश्न-से णं भंते ! वीरिए किंपवहे ? १३० उत्तर-गोयमा ! सरीरप्पवहे । १३१ प्रश्न-से णं भंते ! सरीरे किंपवहे ? १३१ उत्तर-गोयमा ! जीवप्पवहे । एवं सति अस्थि उटाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरिकमेइ वा। विशेष शब्दों के अर्थ-बंधंति-बांधते हैं, पमादपच्चया-प्रमाद के कारण, जोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy