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________________ भगवती सूत्र श. १. उ. ३ कांक्षा - मोहनीय कर्म 1 हैं। ऐसे ही कर्मपुद्गलों को जीव समस्त प्रदेशों से अपने में एकमेक करता है । जिस हेतु से आत्मा कर्म करता है वह हेतु सभी कर्म प्रदेशों का है । इस प्रकार समस्त आत्मप्रदेशों द्वारा एक समय में बंधने योग्य समस्त कर्म पुद्गलों को बांधने के कारण कांक्षामोहनीय कर्म 'सर्व से सर्वकृत' है । कई ग्रन्थकारों का मत है कि जीव के आठ रुचक प्रदेश 'कर्मबन्ध से खाली रहते है । वहाँ कर्म का बन्ध नहीं होता' किन्तु शास्त्र में तो उपरोक्त प्रकार से कथन है । अतः आठ रुचक प्रदेशों को निर्लेप कहना संगत नहीं है । यह समुच्चय प्रश्नोत्तर है, अब दण्डक विशेष को आश्रित करके प्रश्न किया जाता है । गौतम स्वामी पूछते हैं कि - हे भगवन् ! क्या नैरयिकों का कांक्षामोहनीय कर्म कृत किया हुआ है ? भगवान् ने फरमाया- हाँ, गौतम ! कृत है, और वह भी सर्व से सर्वकृत है। जिस प्रकार नैरयिकों के लिए प्रश्नोत्तर हैं उसी प्रकार चौबीस ही दण्डकों के लिए समझ लेना चाहिए। कर्म क्रिया निष्पाद्य है अर्थात् कर्म क्रिया से होता है और क्रिया तीनों काल से सम्बन्ध रखती है । अतीत काल में कर्म निष्पादन की क्रिया की थी, वर्तमान में की जा रही है और भविष्य में की जायगी। इस त्रिकाल सम्बन्धी क्रिया से कर्म लगते हैं । क्रिया पहले होता है, कर्म बाद में लगते हैं । जीव ने कांक्षामोहनीय कर्म किया है और वह भी 'सर्व से सर्व' किया है । इसी तरह वर्तमान काल और भविष्य काल सम्बन्धी प्रश्नोत्तर समझ लेना चाहिए । इस समुच्चय कथन की तरह चौबीस ही दण्डक में समझ लेना चाहिए । १६७ यहाँ जो प्रश्नोत्तर 'कृत' के विषय में बतलाये गये हैं. वे ही प्रश्नोत्तर चितं, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण के विषय में भी समझ लेना चाहिए। पूर्वोक्त प्रश्नों में जहाँ 'कृत' शब्द आया है वहां 'चित, उपचित' आदि शब्दों का प्रयोग करके प्रश्नोत्तरों की योजना कर लेनी चाहिए । मूलपाठ में चित, उपचित आदि के विषय में एक संग्रह - गाथा कही गई है । उसमें यह बतलाया गया है कि 'कृत, चित, उपचित' इन तीन पदों के चार चार भेद कहने चाहिए । अर्थात् एक सामान्य क्रिया और तीन काल की तीन क्रियाएँ । उदीरित, वेदि और निर्जीर्ण इन तीन पदों में तीन काल की क्रिया कहनी चाहिए, जिससे प्रत्येक के तीन तीन भेद होंगे। इन तीन पदों के साथ सामान्य क्रिया नहीं कहनी चाहिए । 'चय' आदि का स्वरूप इस प्रकार है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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