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भगवती सूत्र - श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन
उसकी उतनी स्थिति कह देनी चाहिए और इन सब का उच्छ्वास भी विमात्रा से जानना चाहिए ।
विवेचन - नारकी जीवों का एक दण्डक, दस ग्यारह दण्डक हुए । इसके बाद पृथ्वीकाय जीवों का किया गया है ।
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भवनपति देवों के दस दण्डक, ये एक दण्डक आता है । उसका वर्णन
पृथ्वीकाय जीवों को आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है । ऊपर बताया जा चुका है कि ७७ लव का एक मुहूर्त्त होता है, उससे कुछ कम तक के काल को अर्थात् मुहूर्त के भीतर के समय को अन्तर्मुहूर्त्त कहते हैं । पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष की जो बताई गई है वह 'खर' पृथ्वी की अपेक्षा से समझनी चाहिए। पृथ्वी के छह भेद हैंसहाय सुद्ध वाय, मणोसिला सक्करा य खरंपुढवी । एगं बारस चोट्स, सोलस अट्ठारस बावीस ति ॥
अर्थ - श्लक्ष्ण - स्निग्ध, शुद्ध, बालुका, मनःशिला, अर्करा और खर, यह छह प्रकार की पृथ्वी है। श्लक्ष्ण-सुहाली पृथ्वी की स्थिति एक हजार वर्ष की है । 'शुद्ध' पृथ्वी की बारह हजार वर्ष की, 'बालुका' पृथ्वी की चौदह हजार वर्ष की, 'मनःशिला' पृथ्वी की सोलह हजार वर्ष की, 'शर्करा' पृथ्वी की अठारह हजार वर्ष की और 'खर' की बाईस हजार वर्ष की स्थिति है ।
पृथ्वीकाय के जीवों के श्वासोच्छ्वास के लिए 'वेमायाए' शब्द दिया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय के जीवों के श्वासोच्छ्वास की क्रिया विषम काल वाली है अर्थात् अमुक स्थिति वाले इतने काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं, ऐसा निश्चित निरूपण नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार आहार के परिणमन के विषय में भी इनकी 'विमात्रा' है अर्थात् इष्ट अनिष्ट विविध रूप से परिणमता है ।
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पृथ्वीकाय के जीवों के आहार के विषय में कहा गया है कि यदि व्याघात न हो, तो वे छहों दिशा से आहार लेते हैं । तो यहां यह जान लेना आवश्यक है कि व्याघात किसे कहते हैं ? लोक के अन्त में जहां लोक और अलोक की सीमा मिलती है वही व्याघात होना संभव है । जहाँ व्याघात हो, वहाँ तीन, चार या पांच दिशा से आहार लेते हैं । तात्पर्य यह है कि लोक के अन्त में कोने में ऊपर या नीचे रहा हुआ पृथ्वीकाय का जीव, तीन, चार या पांच दिशाओं से आहार ग्रहण करता है । जब पृथ्वीकायिक जीव लोकान्त
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