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इस विषय में भगवती श. २४ उ. २० और उ. २४ का हवाला दिया है ।
(४) श. १ उ. ५ में पृथ्वीकाय के विषय में टीकाकार ने सास्वादन सम्यक्त्व का निर्देश किया, किंतु पृ. २५२ में इस बात को सिद्धांत के विरुद्ध प्रमाणित की गई है । इस प्रकार इस संस्करण में बहुश्रुत मुनिराजश्री के संशोधन से विशेषता आगई है । टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी में कितनी सरलता एवं निरभिमानता थी, यह उनके निम्न उद्गारों से जानी जा सकती है। उन्होंने प्रथम शतक की टीका पूर्ण करते हुए लिखा है कि
" इति गुरुगमभंगेः सागरस्याऽहमस्य स्फुटमुपचितजाड्यः पञ्चमांगस्य सद्यः । प्रथमशतपदार्थावर्तगर्त व्यतीतो विवरणवरपोतौ प्राप्य सद्धीवराणाम् ।"
अर्थात् — भगवती सूत्र सागर के समान गंभीर है एवं इसका प्रथम शतक सागर की खाड़ी के समान है और इसमें वर्णित पदार्थ समुद्र में भँवर के समान है । मेरी बुद्धि में बहुत बड़ी जड़ता है। मेरे लिए इससे पार होना कठिन है। मुझ में ऐसी शक्ति कहाँ है। कि मैं इससे पार पा सकूं। फिर भी गुरुगम और पूर्वाचार्यों के विवरण ( चूर्णि और अवचूरि) रूपी नोका का अवलंबन लेकर मैंने यह प्रयास किया है ।
उपरोक्त उद्गारों में आचार्यश्री की सरलता एवं निरभिमानता प्रकट होती है । टीकाकार के सामने उलझनें भी बहुत थीं । उन्होंने अपनी कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए स्थानांग सूत्र की टीका के अंत में लिखा है कि
सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदृहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ १ ॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥ २ ॥ क्षूणानि संभवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धांतानुगतो योऽर्थः सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः ॥ ३ ॥ शोध्यं चैतज्जिने भक्तैर्मामवद्भिर्दयापरः ।
- संसारकारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ॥ ४ ॥ आदि अर्थात् - सत्सम्प्रदाय (परम्परा) की हीनता से, सतर्क के वियोग से, सभी स्वपर शास्त्रों का अवलोकन नहीं होने एवं स्मृति में नहीं रहने से, वाचना की अनेकता से, पुस्तकों
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