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भगवती सूत्र-श. १ उ. १० ऐपिथिकी और साम्परायिकी क्रिया
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एक ही है । अथवा प्राण धारण करने वाला 'प्रागी' कहलाता है। जिसका नाश न कभी हुआ हो और न होगा वह 'भूत' कहलाता है। जो भूतकाल में जीता था, वर्तमान काल में जीता है और भविष्यकाल में भी जीता रहेगा वह 'जीव' कहलाता है । जो तीनों काल में चैतन्य शक्ति से युक्त बना रहता है वह 'सत्त्व' कहलाता है । प्राण, भूत आदि प्रत्येक का यह लक्षण प्रत्येक जीव में पाया जाता है, अतएव इस प्रकार प्राण, भूत आदि चारों शब्द एकार्थवाची भी हैं।
___ अन्यतीर्थी कहते हैं कि-दुःख बिना किये ही होता है । जब उनसे यह प्रश्न किया जाता है कि बिना किये दुःख कैसे होता है ? तो इसके उत्तर में वे कहते है कि-हम 'यदृच्छा' तत्त्व मानते हैं । इस यदृच्छा तत्त्व के अनुसार निष्कारण ही सब कुछ होता रहता है। क्या हो और क्या न हो, इसका कोई नियम नहीं है । इसी प्रकार कब, कैसे, कहाँ, क्या हो, इस प्रकार का भी कोई नियम नहीं है । जब, जैसे, जहाँ, जो कुछ हो गया सो । हो गया, यही 'यदृच्छावाद' का सिद्धान्त है।
___नियतिवाद और यदृच्छावाद में यह अन्तर है कि नियतिवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य का एक भविष्य निश्चित है, जो कुछ भवितव्य है वही होता है, किन्तु यदृच्छावाद के अनुसार कोई नियमितता नहीं है । अकस्मात् जब जो कुछ हो गया सो हो गया। उनके मत के अनुसार सारा जगत् अकित है।
भगवान् फरमाते हैं कि-हे गौतम ! उनका यह कथन मिथ्या है, क्योंकि यदि न करने से ही कर्म सुख, दुःख रूप हों, तो इहलौकिक और पारलौकिक विविध प्रकार के अनुष्ठानों का अभाव हो जायगा । किन्तु यदृच्छावादियों ने भी कुछ पारलौकिक अनुष्ठान माना ही है । इसलिए उनका उपर्युक्त कथन अज्ञानतापूर्ण है । दो पुरुषों को एक समान सामग्री प्राप्त होने पर भी उनके सुख, दुःख में जो अन्तर देखा जाता है वह किसी विशिष्ट कारण से ही होता है। वह विशिष्ट कारण 'कर्म' है । इस प्रकार कर्म की सत्ता प्रमाण से सिद्ध है।
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ऐर्यापथिको और साम्परायिकी क्रिया
एका
३२५ प्रश्न-अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, जाव"एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ । तं
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