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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. ३ श्रमणों के काँक्षा- मोहनीय. नैरfयक भी समझना चाहिए । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए । १४० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या पृथ्वीकाय के जीव कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं ? १४० उत्तर - हां, गौतम ! वेदते हैं । १४१ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार वेदते हैं ? १९१ १४१ उत्तर -- हे गौतम ! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन या वचन नहीं होता है कि 'हम कांक्षामोहनीय कर्म को वेदते है, किन्तु वे उसे वेदते हैं। १४२ प्रश्न - - हे भगवन् ! वह सत्य और निःशंक है जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया हैं ? १४२ उत्तर-- हे गौतम! यह सब पहले के समान समझना चाहिए । अर्थात् जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है वह सत्य और निःशंक है । यावत् पुरुषकार पराक्रम से निर्जरा होती है। इस प्रकार चौइन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए। जैसे सामान्य जीव कहे हैं वैसे ही पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए । १४३ प्रश्न -- हे भगवन् ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म वेदते हैं ? १४३ उत्तर -- हां, गौतम ! वेदते हैं। १४४ प्रश्न -- हे भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार वेदते हैं ? १४४ उत्तर -- हे गौतम! उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तर के द्वारा शंका वाले, कांक्षा वाले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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