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________________ भगवती सूत्र - श. १ उ. २ उपपात वाला, खण्डित संयम वाला, अखंडित संयमासंयम — देशविरति वाला, खण्डित: संयमासंयम वाला, असंज्ञी, तापस, कान्दपिक, चरक परिव्राजक, किल्विषिक, तिर्यञ्च, आजीविक, आभियोगिक, श्रद्धा-भ्रष्ट वेशधारी, ये सब यदि देवलोक उत्पन्न हों, तो कौन कहाँ उत्पन्न हो सकता है ? १०८ उत्तर - हे गौतम! असंयत भव्य द्रव्य-देवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट ऊपर के ग्रैवेयकों में उत्पाद (उत्पत्ति ) कहा गया है । अखण्डत संयमवालों का जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में, खण्डित संयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में, अखण्डित संयमासंयम वालों का जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट अच्युत कल्प में, खंडित संयमासंयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में, असंज्ञी जीवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तर देवों में और शेष का उत्पाद जघन्य भवनवासियों में होता है और उत्कृष्ट अब बताया जाता है। तापसों का ज्योतिष्कों में, कान्दपिकों का सौधर्म कल्प में, चरक परिव्राजकों का ब्रह्मलोक कल्प में, किल्विषिकों का लान्तक कल्प में, तिर्यञ्चों का सहस्रार कल्प में, आजीविकों का तथा आभियोगिकों का अच्युत कल्प में और श्रद्धा-भ्रष्ट वेशधारियों को ऊपर के ग्रैवेयक में उत्पाद होता है । विवेचन - जो चारित्र के परिणाम से शून्य हो वह 'असंयत' कहलाता है । जो देव होने के योग्य है वह 'भव्य द्रव्य-देव' कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जो चारित्र पर्याय से रहित है और इस समय तक देव नहीं हुआ है, किन्तु आगे देव होने वाला है वह 'असंयत-भव्य-द्रव्य' देव है । कोई यहाँ पर असंयत भव्य द्रव्य देव का अर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि करते हैं, किन्तु वह ठीक नहीं है । क्योंकि इसी सूत्र में असंयत भव्य द्रव्य-देव की उत्पत्ति ऊपर के ग्रैवेयक तक बतलाई है, किन्तु असंयत सम्यग्दृष्टि की तो बात ही क्या है, देशविरत श्रावक भी बारहवें देवलोक से ऊपर नहीं जा सकता है। ऐसी अवस्था में असंयत सम्यग्दृष्टि ऊपर के ग्रैवेयक तक कैसे जा सकता है ? १५४ यहाँ पर कोई असंयत भव्य द्रव्य देव का अर्थ निन्हव करते हैं, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि निन्हव का पाठ आगे इसी सूत्र में अलग आया है । अतः यहाँ पर असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ 'मिथ्यादृष्टि' लेना चाहिए। असंयत भव्य द्रव्य देव वही होगा जो साधु Jain Education International For Personal & Private Use Only J www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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