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________________ भगवती सूत्र श. १ उ. ६ आर्य रोह के प्रश्न हो रहे थे और तत्त्व विचार कर रहे थे कि उनके मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि पहले लोक है या पहले अलोक है ? अर्थात् इन दोनों में कौन पहले और कौन पीछे है ? इस प्रकार का प्रश्न उत्पन्न होने पर रोह अनगार अपने स्थान से उठे और भगवान् के निकट पहुँचे । उन्होंने तीन बार भगवान् को प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके रोह अनगार ने भगवान् से पूछा कि हे भगवन् ! मैंने आप से लोक और अलोक, ये दो पदार्थ सुने हैं, परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि- पहले लोक है या अलोक है ? पहले लोक बना है, या अलोक बना है ? - रोह अनगार के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि- "हे रोह ! लोक और अलोक पहले भी है और पीछे भी है, इन दोनों में पहले पीछे का क्रम नहीं है, क्योंकि ये दोनों शाश्वत भाव है ।" इसके बाद रोह अनगार ने जीव और अजीव के विषय में प्रश्न किया, जिसका उत्तर भगवान् ने वही फरमाया कि - "हे. रोह ! जीव और अजीव में पहले पीछे का क्रम नहीं है, क्योंकि ये दोनों शाश्वत भाव हैं । इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक तथा सिद्धि और असिद्धि एवं सिद्ध और असिद्ध ( संसारी) के लिए भी समझना चाहिए ।" फिर रोह अनगार ने मुर्गी और अण्डे के विषय में प्रश्न किया है। इस पर भगवान् फरमाया कि - " हे रोह ! बोलते समय तो कोई भी क्रम बनाया जा सकता है, किन्तु वस्तु में क्रम नहीं है । यदि अण्डा पहले माना जाय और मुर्गी पीछे मानी जाय, तो मैं पूछता हूँ कि- अण्डा कहाँ से आया ? रोह - हे भगवन् ! मुर्गी से आया । भगवान् -- हे रोह ! मुर्गी कहां से आई ? रोह - हे भगवन् ! मुर्गी अण्डे से हुई । २७५ भगवान् - तो हे रोह ! मुर्गी और अण्डे में पहले और पीछे किसे कहा जाय ? वस्तुतः न कोई पहले हैं, न पीछे है। दोनों में पहले पीछे का क्रम नहीं है ये दोनों प्रवाह की अपेक्षा अनादि हैं । Jain Education International इसी प्रकार सात अवकाशान्तर, सात तनुवात, सात घनवात, सात घनोदधि, सात नरक पृथ्वी, असंख्य द्वीप समुद्र, भरतादि सात क्षेत्र, नरकादि चौवीस दण्डक, पांच अस्तिकाय, काल विभाग, आठ कर्म, छह लेश्या, तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, चार संज्ञा, पांच शरीर, तीन योग, दो उपयोग, छह द्रव्य, अनन्त प्रदेश, अनन्त पर्याय तथा भूत, भविष्य - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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