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________________ भगवती मूत्र-ग. २ उ. ७ देवों के प्रकार ५०१ ठाणपदे देवाणं वतव्वया सा भाणियबा, णवरं-भवणा पण्णत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे एवं सव्वं भाणियव्वं, जाव सिद्धगंडिया सम्मत्ता, कप्पाण पइट्टाणं बाहुल्लुचत्तं एव संठाणं, जीवाभिगमे जाव-वेमाणिउद्देसो भाणियव्वो सब्यो। ॥ सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो॥ विशेष शब्दों के अर्थ-ठाणा-स्थान, वत्तव्वया-वक्तव्यता, णवरं-किन्तु इतनी विशेषता, उववाएण-उत्पत्ति की अपेक्षा, लोयस्स-लोक के, कप्पाण-कल्पों का देवलोकों का पइट्ठाणं-प्रतिष्ठान, बाहुलुच्चत्तं-बाहल्य-मोटाई और ऊँचाई, संठाणं-संस्थान-आकार। भावार्थ-४९ प्रश्न-हे भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? . ४९ उत्तर-हे गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा-१ भवनपति २ वाणव्यन्तर ३ ज्योतिषी और ४ वैमानिक ।। ..... ५० प्रश्न-हे भगवन् ! भवनवासी देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? ५० उत्तर-हे गौतम ! भवनवासी देवों के स्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे हैं । इत्यादि सारा वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थानपद में कहे अनुसार जान लेना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि-भवनवासियों के भवन कहने चाहिए। उनका उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है। यह सारा वर्णन सिद्धगण्डिका पर्यन्त पूरा कहना चाहिए। कल्पों का प्रतिष्ठान, मोटाई, ऊँचाई और संस्थान आदि सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र के वैमानिक उद्देशक की तरह कहना चाहिए। विवेचन-पहले के प्रकरण में भाषा के विषय में कहा गया है । भाषा की विशद्धि से देवत्व प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए इस सातवें उद्देशक में देवों का वर्णन किया गया है। देवों के विषय में पूछने पर भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद' में जो वक्तव्यता कही हैं वह यहाँ कहनी चाहिए । देव चार प्रकार के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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