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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ गर्भस्थ जीव की नरकादि गति ३०७ धार्मिक आर्य वचन सुनकर, हृदय में धारण करके तुरन्त ही संवेग से धर्म में श्रद्धालु बनकर, धर्म के तीव अनुराग में रक्त होकर, वह धर्म का कामी, पुण्य का कामी, स्वर्ग का कामी, मोक्ष का कामी, धर्म म आसक्त, पुण्य में आसक्त, स्वर्ग में आसक्त, मोक्ष में आसक्त, धर्म का प्यासा, पुण्य का प्यासा, स्वर्ग का प्यासा, मोक्ष का प्यासा, उसी में चित्त वाला, उसी में मनवाला, उसी में आत्मपरिणाम वाला, उसी में अध्यवसित, उसी में तीव्र प्रयत्न वाला, उसी में सावधानता वाला, उसी के लिए क्रिया करने वाला और उसी संस्कार वाला जीव. यदि ऐसे समय में मृत्यु को प्राप्त हो, तो देवलोक में उत्पन्न होता है । इसलिए हे गौतम ! कोई जीव देवलोक में जाता है और कोई नहीं जाता है। विवेचन-गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! गर्भ में रहा हआ कोई जीव, नरक में जाता है और कोई नहीं जाता है। इसका कारण यह है कि-कोई जीव राजवंश आदि से, गर्भ में आया हुआ है और उस समय संयोगवश उसका कोई शत्रु राजा, उसके राज्य को हड़पने के लिए सेना लेकर चढ़ आया । सेना आई हुई सुनकर अपने राज्य की रक्षा के लिए उसमें धन, राज्य और कामभोगों की इच्छा लालसा, पिपासा और तीव्रता पैदा होती है, जिससे वह वैक्रिय-लब्धि द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को गर्भ से बाहर निकालकर वैक्रिय-समुद्घात करता है । वैक्रिय-समुद्घात करके वह गर्भस्थ बालक हाथी, घोड़े, रथ और पंदल, यह चतुरंगिनी सेना बनाता है और आई हई-शत्रकी सेना से लडाई करता है। उस समय उसका चित्त धन, राज्य और कामभोगों में आसक्त रहता है और ऐती कलुषित तीव्र भावना रहती है कि-सामने वाले शत्रु राजा को मार डालूं और अपना राज्य बचा लूं । ऐसे समय में यदि उसकी मृत्यु हो जाय, तो वह मरकर नरक में चला जाता है। '' इसी प्रकार कोई गर्भस्थ जीव मरकर स्वर्ग में भी चला जाता है । इसका कारण यह है कि गर्भस्थ संज्ञी पञ्चेद्रिय, सब पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव, आगमानुसार व्रतों का पालन करने वाले श्रमण (साधु) या माहण (देशविरत-श्रमणोपासक) के पास एक भी धार्मिक आर्य वचन सुनकर उसे हृदय में धारण करता है और धर्मश्रद्धालु बन जाता है। वह धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष का इच्छुक बनकर उसी में तल्लीन बन जाता है। ऐसे समय में शुभ अध्यवसायों में यदि उसकी मृत्यु हो जाय, तो वह देवलोक में जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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