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आदि ।
भगवती सूत्र - श. १ उ. ४ कर्म प्रकृतियाँ
प्रश्न - हे भगवन् ! कर्म प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर - गौतम ! कर्म प्रकृतियाँ आठ हैं । यथा - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय
प्रश्न – हे भगवन् ! जीव कर्म प्रकृतियों को किस प्रकार बाँधता है ?
उत्तर - हे गौतम! कर्म ही कर्म को बाँधता है अर्थात् जिस जीव में कर्म है, उसी को कर्म का बंध होता है। जिस जीव में कर्म नहीं है, उसको कर्म का बन्ध नहीं होता है । कर्म जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं। आत्मा कर्मों का कर्त्ता है और अनादि काल से वह कर्मों का उपार्जन कर रहा है। हां, यह अवश्य है कि कोई भी एक कर्म अनादिकालीन नहीं है और न अनन्त काल तक आत्मा के साथ रह सकता है, किन्तु एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार नदी के जल प्रवाह के समान कर्म आते जाते रहते हैं ।
कर्म किस प्रकार बँधते हैं ? इसका उत्तर यह है कि- ज्ञानावरणीय कर्म जो आत्मा ने पहले उपार्जन किया है, उसका उदय होने पर दर्शनावरणीय कर्म का भी उदय होता है । जब दर्शनावरणीय कर्म का उदय होता है, तो दर्शनमोहनीय कर्म अनुभव में आता है। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार जीव आठ कर्मों को बांधता है । यह कर्म बन्ध का प्रवाह अनादि काल का है ।
पनवणा सूत्र में आगे इस प्रकार प्रश्नोत्तर हैं ।
प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कितने स्थानों द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है ? उत्तर - हे गौतम ! राग और द्वेष, इन दो स्थानों द्वारा जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधता है ।
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प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कितनी कर्म प्रकृतियों को वेदता है ? उत्तर - हे गौतम ! कोई वेदता है और कोई नहीं वेदता है ।
प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव ज्ञानावरणीय कर्म वेदता है ?
उत्तर - हे गौतम ! कोई जीव वेदता और कोई जीव नहीं वेदता है । केवली
भगवान् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर चुके हैं, इसलिए वे नहीं वेदते हैं ।
प्रश्न
- हे भगवन् ! क्या नैरयिक ज्ञानावरणीय कर्म वेदते हैं ।
उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म अवश्य वेदते है ।
प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का रस कितने प्रकार का कहा गया है. ?.
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