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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ संसार संस्थानकाल १४९ अर्थात्-संसार संस्थानकाल तीन प्रकार का है--शून्यकाल, अशून्यकाल, मिश्रकाल । तिर्यञ्चों में शून्यकाल नहीं होता। शेष तीन गतियों में तीनों काल हैं। अब इन तीनों काल का स्वरूप बतलाया जाता है । यद्यपि पहले शून्यकाल का नाम आया है तथापि पहले अशून्यकाल का स्वरूप बतलाया जाता है, क्योंकि अशून्यकाल का स्वरूप समझ लेने पर शेष दो सरलता से समझ में आ सकते हैं । जैसे-वर्तमान काल में सातों नरकों में जितने जीव विद्यमान हैं उनमें से जितने समय तक कोई जीव न तो मरे और न नया उत्पन्न हो अर्थात् उतने के उतने ही जीव जितने समय तक रहें उस समय को नरक की अपेक्षा अशून्यकाल कहते हैं । तात्पर्य यह है कि नरक में एक ऐसा समय भी आता है जब न कोई नया जीव नरक में जाता है और न पहले के नारकियों में से । कोई बाहर निकल कर आता है। वह काल नरक की अपेक्षा अशून्यकाल कहलाता है। . कहा भी है आइडसमइयाणं, रइयाणं न जाव इक्को वि। उव्वइ अण्णो वा, उववज्जइ सो असुण्णो उ॥ : अर्थात् -आदिष्ट (नियत) समय वाले नारकी जीवों में से जब तक मर कर एक • भी वहाँ से नहीं निकलता है और न कोई नया उत्पन्न होता है, तबतक का काल अशून्य काल कहलाता है। वर्तमानकाल के इन नारकियों में से एक दो तीन चार इत्यादि क्रम से निकलते निकलते जब उनमें से एक ही नारकी शेष रह जाय अर्थात् मौजूदा नारकियों में से एक का निकलना जब आरम्भ हुआ तब से लेकर जब एक शेष रहा तब तक के काल को मिश्रकाल कहते हैं। निर्दिष्ट वर्तमान काल के जिन नारकियों के ऊपर विचार किया गया है उनमें से जब समस्त नारकी जीव नरक से निकल जावें, उनमें से एक भी जीव शेष न रहे और उनके स्थान पर सभी नये नारकी जीव पहुँच जावें, वह समय नरक की अपेक्षा शून्यकाल कहलाता है । जैसा कि कहा है उन्बट्टे एक्कम्मि वि ता मीसो धरइ जाव एक्का वि । जिल्लेविएहि सव्वेहि, वट्टमाणे हि सुण्णो उ॥ अर्थात्-उद्वर्तन होते हुए जब तक उनमें से एक भी जीव वहाँ बाकी रहे, उसे मिश्रकाल कहते हैं और वर्तमान समय के सभी जीव निर्लेप रूप से वहाँ से निकल आवें और जो हैं वे सब अन्य हो, उसे शून्यकाल कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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