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________________ १०० भगवती सूत्र-श. १ उ. १ संवृत अनगार देता है। ५९ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? ५९ उत्तर-हे गौतम ! संवत अनगार आयुकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को जो गाढ़ बन्धन से बंधी हुई हों उन्हें शिथिल बन्ध वाली करता है, दीर्घकालीन स्थिति वाली प्रकृतियों को अल्पकालीन स्थिति वाली बनाता है, तीव्र फल देने वाली प्रकृतियों को मन्द फल देने वाली बनाता है, बहुत प्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्प प्रदेश वाली बनाता है। आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करता है तथा असाता वेदनीय कर्म का बारबार उपचय नहीं करता है। इसलिए अनादि अनन्त, लम्बे मार्ग वाले, चातुरन्तक-चार प्रकार की गति वाले संसार रूपी वन का उल्लंघन कर जाता है। इसलिए हे गौतम ! संवृत अनगार सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है। विवेचन-आश्रव द्वार का निरोध करके संवर की साधना करने वाले मुनि को संवृत अनगार कहते हैं । संवृत अनगार छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक होते हैं । छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त और सातवें से चौदहवें गुणस्थान तक अप्रमत्त होते हैं। संवृत अनगार चरमशरीरी और अचरमशरीरी के भेद से दो प्रकार के होते हैं । जो दूसरा शरीर धारण नहीं करेंगे वे चरमशरीरी कहलाते हैं । जिन्हें दूसरा शरीर धारण करना पड़ेगा उन्हें अचरमशरीरी कहते हैं । गौतम स्वामी और भगवान् के ये प्रश्नोत्तर चरमशरीरी की अपेक्षा से हैं । अचरमशरीरी के विषय में नहीं है अथवा इस सूत्र का दो तरह से अर्थ करना चाहिए-एक साक्षात्-इसी भव में मुक्त होने वाले और दूसरा परम्परा-अगले किसी भव में सिद्धि प्राप्त करने वाले । चरमशरीरी इसी भव से मोक्ष जावेंगे, अतएव यह सूत्र उन पर साक्षात् रूप से लागू होता है । अचरमशरीरी सात आठ भव में मोक्ष जायेंगे, इसलिए उनके लिए परम्परा से लागू होता हैं। - इस समाधान से एक नया प्रश्न उपस्थित होता हैं, वह यह है कि परम्परा से तो असंवृत अनगार भी मोक्ष प्राप्त करेंगे, क्योंकि शुक्ल-पाक्षिक का मोक्ष अवश्यम्भावी है। फिर संवृत और असंवृत अनगार का भेद करने से क्या लाभ है। .. - इसका समाधान यह है कि संवृत अनगार चाहे इस भव से मोक्ष न जावें, तथापि परम्परा से मोक्ष जायेंगे ही और परम्परा की सीमा सिर्फ सात-आठ भव' ही है । सात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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