________________
भगवती सूत्र - श. २ उ. १ वायुकाय का श्वासोच्छ्वास
१२ प्रश्न - से केणट्टेणं मंते ! एवं वुच्चइ - 'सिय ससरीरी निक्खम, सिय असरीरी निक्खमइ ?'
३८३
- १२ उत्तर - गोयमा ! वाउयायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता, तं जहा :- ओरालिए, वेडव्विए, तेयए, कम्मए । ओरालियवेउब्वियाई विप्पजहाय तेयय-कम्मएहिं निक्खमइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचड़ - 'सिय ससरीरी, सिय असरीरी निरखमह ।'
A
विशेष शब्दों के अर्थ - पुट्ठे टकराकर, उद्दाइत्ता-मरकर, पच्चायाइ - उत्पन्न होता है, क्खिमइ निकलता है, विप्पजहाय-छोड़कर ।
भावार्थ -- ८ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय को ही बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ?
८ उत्तर - हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकाय को ही बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ।
९ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाखों बार मर कर फिर वहीं (वायुकाय में ही ) उत्पन्न होता है ?
९ उत्तर - हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाखों बार मर कर फिर वहीं उत्पन्न होता है ।
१० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या वायुकाय, स्वजाति के जीवों के साथ स्पृष्ट होकर मरण पाता है अथवा बिना पाता है ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
० उत्तर - हे गौतम ! वायुकाय, स्वजाति के अथवा परजाति के जीवों के साथ स्पृष्ट होकर मरण को प्राप्त होता है, किन्तु बिना स्पृष्ट हुए मरण को प्राप्त नहीं होता है ।
११ प्रश्न - हे भगवन् ! जब वायुकाय मरता है, तो क्या शरीर सहित
अथवा परजाति के
स्पृष्ट हुए ही मरण
www.jainelibrary.org