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भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ पापित्य स्थविर भगवान्
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से चलित करने में समर्थ नहीं थे।
निर्ग्रन्थ प्रवचनों का अर्थ सुनने के कारण वे 'लब्धार्थ' थे । अर्थ का निर्णय करने से वे 'गृहीतार्थ' थे । सन्देह वाले स्थलों को पूछ कर निर्णय कर लेने के कारण वे 'पृष्टार्थ' थे। पूछे हुए अर्थों को सम्यक् प्रकार से धारण करने से वे 'अभिगृहीतार्थ' थे। शास्त्रों के रहस्यों को जानकर वे 'विनिश्चितार्थ' थे । ऐसा होने से उनकी हड्डी और मज्जा सर्वज्ञ के विश्वास रूपी कसुंबा रग से रंगी हुई थीं। इसीलिए वे कहते थे कि- "हे आयुष्मन् जीवों ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है, यही परमार्थ है । इसके सिवाय शेष सब (धन, धान्य, पुत्र, कलत्र, भाई बन्धु और कुप्रावचन) अनर्थ हैं ।"
जिनधर्म की प्राप्ति से उनका मन परितुष्ट था, अतएव उनका मन स्फटिक रत्न के समान उन्नत था। अथवा 'उसियफलिहा' का अर्थ अन्य आचार्य इस प्रकार करते हैं कि-वे अत्यन्त उदार थे, इसलिए सभी याचकों के लिए उनके द्वार खुले रहते थे। किंवाड़. के पीछे की अर्गला सदा ऊपर की तरफ उठी हुई रहती थी, कभी दरवाजा बन्द नहीं रहता था। जिनके घर के दरवाजे किंवाड़ों से बन्द नहीं किये जाते थे। उन्हें सर्वोत्तम जिनधर्म की प्राप्ति हुई थी, इसलिए वे पाखण्डियों से कभी भी घबराते नहीं थे । वे ब्रह्मचर्य व्रत में इतने दृढ़ थे कि वे किसी के घर में जाते या यहां तक कि राजा के अन्तःपुर में भी चले जाते तो भी अप्रीति उत्पन्न नहीं होती थी। किसी को अविश्वास उत्पन्न नहीं होता था। अथवा जिन्होंने पर घर में और राजा के अन्तःपुर में जाने का त्याग कर दिया था। वे श्रावक के बारह व्रतों का भली प्रकार पालन करते थे। एक महीने में छह पौषधोपवास करते थे। श्रमण निर्ग्रन्थों को उनके कल्पानुसार प्रासुक एषणीय अशन पान आदि बहराते थे । वे जो व्रत नियम और तप स्वीकार करते थे उनमें किसी प्रकार की कमी न करते हुए पूर्ण रूप से पालन करते थे।
ते णं काले णं ते णं समए णं पासावचिजा थेरा भगवंतो जाइ. सम्पन्ना कुलसम्पन्ना बलसम्पन्ना रूवसम्पन्ना विणयसम्पन्ना णाणसम्पन्ना दंसणसम्पन्ना चरित्तसम्पन्ना लजासम्पन्ना लाघवसम्पन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोहा जिय
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