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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ अस्तित्व नास्तित्व भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से दोनों धर्मों को एक ही पदार्थ में मानना विरुद्ध नहीं है । जैसे घट (घड़ा) घट रूप से अस्ति है, किन्तु पट (वस्त्र) रूप से नहीं । घट स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा 'अस्ति' रूप है और परद्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा 'नास्ति' रूप है । यदि घट को परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा भी 'नास्ति' रूप न माना जाय तो वह 'पट' रूप भी हो जायगा। इस प्रकार प्रति-नियत पादार्थों की व्यवस्था होना असम्भव हो जायगा । इसलिए भिन्न भिन्न अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म रहते हैं। . इस विषय में एक और उदाहरण दिया जाता है। मान लीजिये-एक दीपक जल रहा है, उसका प्रकाश फैल रहा है। किसी कारण से दीपक बुझ गया किंतु प्रकाश अपने मूल रूप से नष्ट नहीं हुआ । वह प्रकाश-पुद्गल अब अपनी पर्याय पलट कर अन्धकार के रूप में परिणत हो गया है । अन्धकार भी एक प्रकार का पुद्गल ही है । इस प्रकार जो पुद्गल पहले 'प्रकाश' अवस्था में था वह अब 'अन्धकार' अवस्था में आ गया। दोनों अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य वही है । कुछ लोग अन्धकार को अभाव रूप मानते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है। शास्त्रकार अत्यन्ताभाव को ही 'नास्तित्व' रूप मानते हैं । यथा-खरविषाण (गधे के सींग) । जो नास्तित्व है वह कभी भी अस्तित्व नहीं होगा। 'अस्तित्व, अस्तित्व में और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है' यह निर्णय हो जाने के बाद गौतम स्वामी पूछते हैं कि-हे भगवन् ! अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है सो क्या 'विथसा'-स्वभाव से परिणत होता है या 'प्रयोगसा'-प्रयोग से अर्थात् जीव के व्यापार से ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! दोनों रूप से परिणत होता है। प्रयोग का अर्थ है-व्यापार-जीव का प्रयत्न । जीव के प्रयत्न से भी अस्तित्व, अस्तित्व रूप में परिणत होता है । जैसे-कुम्हार के व्यापार से मिट्टी के पिण्ड का घट रूप में परिणत होना । अथवा जैसे मनुष्य की क्रिया से सीधी अंगुली का टेढी हो जाना। यह अस्तित्व का अस्तित्व में प्रयोग से परिणमन हुआ। इसी प्रकार जीव के व्यापार के बिना भी अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है। जैसे काले बालों का सफेद हो जाना। इस परिणमन में जीव के किसी बाह्य व्यापार की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार नास्तित्व का नास्तित्व रूप में परिणमन भी प्रयोग और स्वभाव से होता है । अंगुली का अंगूठा आदि रूप में न होना 'नास्तित्व' कहलाता है । अर्थात् अंगुली की अपेक्षा से अंगूठे का अस्तित्व ही नास्तित्व है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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