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________________ ६६ भगवती सूत्र - श. १ उ. १ पृथ्वीकाय आदि का वर्णन क्या कारण है ? इस आशंका का समाधान यह है कि नारकी जीव दुःख में पड़े हुए हैं, इसलिए उनमें इतनी अधिक उथल पुथल नहीं होती है, किन्तु भवनपति देवों में उथल पुथल अधिक होती रहती है, इत्यादि कारणों से उनके दण्डक अलग अलग माने गये संभवित होते हैं । इस विषय में शास्त्रों में कोई स्पष्टीकरण देखने में नहीं आया है, किन्तु पूर्वाचार्यों की धारणा ऐसी है कि सातों नरकों की क्षेत्र - सीमा परस्पर संलग्न है । इनके बीच में कोई . दूसरे त्रस जीव नहीं है । किन्तु भवनपति देवों में यह बात नहीं है, इनके बीच में नैरयिक जीवों का व्याघात होने sa use पृथक्-पृथक् माने गये हैं अर्थात् प्रथम नरक में १३ प्रतर और १२ अन्तर हैं । भगवती सूत्र के दूसरे शतक के आठवें उद्देशक में समभूमि से ४० हजार योजन नीचे चमरचंचा राजधानी बतलाई है। चालीस हजार योजन नीचे जाने पर रत्नप्रभा पृथ्वी का तीसरा अंतर आता है इसलिए ऊपर के दो अन्तरों को छोड़कर शेष नीचे के दस अन्तरों में दस जाति के भवनपति देव रहते हैं और प्रतर में रिये रहते हैं, परन्तु प्रथम नरक के नीचे के प्रतर से सातवीं नरक तक बीच में कोई भी सजीव नहीं होने से सातों नरक जीवों का एक ही दण्डक कहा गया है और दस जाति के भवनपतियों के बीच-बीच में प्रथम नरक के नैरयिकों के प्रतर आने से भवनपतियों के दस दण्डक (विभाग) किये गये हैं। ऐसी पूर्वाचार्यों की धारणा है । पृथ्वीकाय आदि का वर्णन २७ प्रश्न–पुढवीकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? २७ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं । २८ प्रश्न - पुढवीकाइया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमति वा ऊससंति वा जीससंति वा ? २८ उत्तर - गोयमा ! वेमायाए आणमंति वा ४ । २९ प्रश्न - पुढवीकाइया णं भंते ! आहारट्ठी ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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