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________________ १०६ भगवती सूत्र - श १ उ. १ असंयत जीव की गति शुरुआत वाला, विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला इत्यादि विशेषणों से विशिष्ट अशोक वन, सप्तपर्ण वन, चम्पक वन, आम्रवन, तिलक वृक्षों का वन, तूम्बे की लताओं का वन, बड़ वृक्षों का वन, छत्रोघ वन, अशन वृक्षों का वन, सण वृक्षों का वन, अलसी के पौधों का वन, कुसुम्ब वृक्षों का वन, सिद्धार्थ - सफेद सरसों का वन, बन्धुजीवक अर्थात् दुपहरिया के वृक्षों का वन शोभा से अत्यन्त शोभित होता है । इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले बहुत से वाणव्यन्तर देवों और उनकी देवियों से व्याप्त, विशेष व्याप्त, उपस्तीर्ण - एक दूसरे के ऊपर आच्छादित, परस्पर मिले हुए, प्रकट अर्थात् प्रकाश वाले, अत्यन्त अवगाढ शोभा से अत्यन्त सुशोभित रहते हैं। हे गौतम ! वाणव्यन्तर देवों के देवलोक इस प्रकार कहे गये हैं । इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-असंवत जीव यावत् देव होता है । भगवान् गौतम स्वामी ने कहा कि हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । विवेचन - असाधु को अर्थात् संयम रहित को असंयत कहते हैं । जिसने प्राणातिपात आदि पापों का त्याग रूप व्रत धारण नहीं किया है एवं जिसकी तप आदि के विषय में विशेष तल्लीनता नहीं है उसे अविरत कहते हैं । जिसने भूतकालीन पापों को निन्दा ग आदि के द्वारा दूर नहीं किया है और भविष्यकालीन पापों का त्याग नहीं किया है उसे ‘अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा' कहते हैं अथवा मरण काल से पहले जिसने तप आदि के द्वारा पाप का नाश न किया हो उसे 'अप्रतिहतपापकर्मा' कहते हैं और मृत्यु काल आ जा पूर भी जिसने पाप का नाश न किया हो उसे 'अप्रत्याख्यातपापकर्मा' कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसने मृत्यु से पहले पापों का त्याग नहीं किया है और मृत्यु आने पर भी त्याग नहीं किया है वह 'अप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा' कहलाता है अथवा शुद्ध श्रद्धा को धारण करना, पूर्व के पापकर्मों का नाश करना कहलाता है। जिसने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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