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________________ १२४ भगवती सूत्र-श. १ उ. २ नैरयिकों के समवेदना आदि ८१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या सब नारकी समान आयुष्य वाले हैं और समोपपन्नक-एक साथ उत्पन्न होने वाले हैं ? ८१ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं। ८२ प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से ? ८२ उत्तर-हे गौतम ! नारको जीव चार प्रकार के कहे गये हैं । यथा१ समायुष्क समोपपन्नक-समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए। २ समायुष्क विषमोपपन्नक-समान आयु वाले और पहले पीछे उत्पन्न हुए । ३ विषमायुष्क समोपपन्नक-विषम आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए । ४ विषमायुष्क विषमोपपन्नक-विषम आयु वाले और पहले पीछे उत्पन्न हुए। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारको जीव समायुष्क समोपपत्रक अर्थात् समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए नहीं हैं। विवेचन-श्री गौतम स्वामी ने पूछा कि हे भगवन् ! क्या सब नारकी जीव समान वेदना वाले हैं ? भगवान् ने फरमाया कि-सब जीव समान वेदनां वाले नहीं हैं, क्योंकि नारकी जीवों के दो भेद है-संजीभूत और असंज्ञीभूत । संज्ञीभूत नारकियों को बहुत वेदना होती है और असंजीभूत नारकियों अल्प वेदना होती है। . __यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत किसे कहते हैं ? इस सम्बन्ध में टीकाकार का कयन इस प्रकार है-संज्ञा का अर्थ है-सम्यग्दर्शन अर्थात् शुद्ध श्रद्धा । सम्यग्दर्शन वाले जीव को संज्ञी कहते हैं और जिस जीव को संज्ञीपन प्राप्त हुआ है, उसे संज्ञीभूत कहते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि को संज्ञीभूत कहते हैं । ___संज्ञीभूत का दूसरा अर्थ है-जो पहले असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि) था और अब संज्ञी (सम्यग्दृष्टि) होगया है अर्थात् जो नरक में ही मिथ्यात्व को छोड़ कर सम्यग्दृष्टि हुआ है, वह संज्ञी कहलाता है । संशीभूत को बहुत वेदना होती है। इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव जब नरक में जाता है या नरक में गये हुए जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है, तब वह अपने पूर्वकृत कर्मों का विचार करता है और सोचता है कि-अहो ! मैं कैसे घोर संकट में हैं। अरिहन्त भगवान् का धर्म सब संकटों को टालने वाला और परमानन्द देने वाला है, उसका मैंने आचरण नहीं किया । इसी कारण यह अचिन्तित आपदा आ पड़ी हैं । कामभोग जो ऊपरी दृष्टि से अच्छे प्रतीत होते थे, किन्तु जिनका परिणाम अत्यन्त दारुण हैं, उनमें फंसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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