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________________ .. भगवती सूत्र-श. १ उ. ४ अपक्रमण २०९ १५३ प्रश्न-हे भगवन् ! मोहनीय कर्म को वेदता हुआ यह इस प्रकार क्यों होता है ?. १५३ उत्तर-हे गौतम ! पहले उसे इस प्रकार रुचता है और अब उसे इस प्रकार नहीं रुचता है । इस कारण यह इस प्रकार होता है। विवेचन-उपस्थान का विपक्ष अपक्रमण है । इमलिए उपस्थान के पश्चात् अपक्रमण का प्रश्न किया गया है। मोहनीय कर्म जब उदय में आता है तब जीव अपक्रमण करता है, अर्थात् उन्नत गुणस्थान से गिर कर नीचे हीन गुणस्थान में आता है । यह अपक्रमण बालवीर्यता से होता है और कदाचित् बालपण्डितवीयंता से भी होता है, परन्तु पण्डितवीर्यता से नहीं होता। जब मिथ्यात्व मोहनीय का उदय हो जाता है, तब जीव सम्यक्त्व से, संयम से या देशसंयम से गिरकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है। पण्डितवीर्यता अपक्रमण का कारण नहीं है। इसलिए पण्डितवीर्यता में अपक्रमण का निषेध किया गया है । कदाचित् चारित्र मोहनीय का उदय हो, तो सर्वविरति संयम से पतित होकर बालपण्डित वीर्यता (देशविरति) में आ जाता है । ... यहां पाठान्तर भी है- 'बालवीरियत्ताए जो पण्डियवीरियत्ताए, णो बालपण्डियवीरियत्ताए' अर्थात् -जब मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होता है तब सिर्फ बालवीर्य ही होता है, पंडितवीर्य और बालपंडितवीर्य नहीं होता है। __उदीर्ण--उदय का विपक्षभूत 'उपशम' है । इसलिए अब 'उपशम' के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है । उपशम सम्बन्धी प्रश्नोत्तर उदय के समान ही समझना चाहिए। विशेषता यह है कि जब मोहनीय कर्म सर्वथा उपशान्त होता है, तब पण्डितवीर्य से क्रिया में उपस्थान होता है। क्योंकि जब मोह उपशान्त हो जाता है उस अवस्था में सिर्फ पंडितवीर्य ही होता है, शेष दो वीर्य नहीं होते। वृद्धपुरुषों ने तो किसी एक वाचना का आश्रय लेकर इस प्रकार कथन किया है कि-जब मोहनीय कर्म उपशान्त होता है, तब जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होता, किन्तु सर्वविरत (साधु) या देशविरत (श्रावक) होता है। अपक्रमण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर में इस प्रकार समझना चाहिए कि जब मोहनीय कर्म उपशान्त होता है, तब बालपण्डितवीर्य के चलते संयतपने से गिर कर देश-संयत होता है। क्योंकि उसका मोहोपशम अमुक अंश में होता है । परन्तु वह मिथ्यादृष्टि नहीं होता है, क्योंकि मोहनीय कर्म का उदय होने पर ही मिथ्यादृष्टि होता है । यहां तो मोह के उपशम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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