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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षा-मोहनीय की उदीरणा १८१ ++44 अर्थ-मनुष्यों को शुभ या अशुभ जो कुछ मिलना होता है वह नियति (होनहार) के प्रभाव से अवश्य मिलता है। जीव चाहे जितना प्रयत्न करे, किन्तु जो नहीं होने वाली बात है वह कभी नहीं होगी और जो बात होने वाली है वह लाख प्रयत्न करने पर भी टल नहीं सकती। नियतिवादी के इस मत का यहाँ खण्डन होता है, क्योंकि यहाँ कार्य-कारण की शृंखला बतलाई गई है । वह इस प्रकार है कि-कांक्षामोहनीय कर्म प्रमाद से, प्रमाद योग से, योग वीर्य से, वीर्य शरीर से और शरीर जीव से उत्पन्न होता है । जब जीव से शरीर उत्पन्न होता है, तो जीव में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम भी है । यदि नियतिवाद को स्वीकार किया जाय, तो प्रत्यक्ष सिद्ध पुरुषार्थ का अपलाप होता है । परन्तु जैसे सूर्य प्रत्यक्ष दिखाई देता है, उसका अपलाप नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार प्रत्यक्ष से सिद्ध पुरुषार्थ का भी अपलाप नहीं किया जा सकता । जीव में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य. पुरुषकारपराक्रम है। - खड़ा होना, (तत्पर होना) 'उत्थान' कहलाता है । उत्क्षेपण अपक्षेपण अर्थात ऊपर फेंकना, नीचे फेंकना इत्यादि जीव की चेष्टा विशेष को 'कर्म' कहते हैं । शारीरिक प्राण को 'बल' कहते हैं । जीव के उत्साह को 'वीर्य' कहते हैं । पुरुष का स्वाभिमान अर्थात् इष्ट फल का साधक पराक्रम 'पुरुषकार पराक्रम' कहलाता है । यहाँ यह शंका की जा सकती है कि क्या स्त्रियाँ क्रिया नहीं करती हैं ? यदि करती हैं, तो 'पुरुषकार' की तरह 'स्त्रीकार' क्यों नहीं कहा ? इसका समाधान यह है कि-स्वभावतः स्त्रियों की क्रिया की अपेक्षा पुरुषों की क्रिया विशेष होती है और विशेष को लक्ष्य करके ही बात कही जाती है । इसलिए यहाँ 'पुरुषकार' कहा है । उपलक्षण से स्त्री का उद्योग भी पुरुषार्थ ही समझना चाहिए। ___पुरुषकार अर्थात् पुरुष की क्रिया और पराक्रम अर्थात् शत्रु का पराजय । ये दोनों कार्य स्त्री और नपुंसक की अपेक्षा पुरुष अधिक करता है । पुरुष की क्रिया और शव का पराजय ये दोनों मिलकर 'पुरुषकार पराक्रम' कहलाता है । ____१३२ प्रश्न-से गुणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चे संवरइ ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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