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________________ १८० भगवती सूत्र-श. १ उ. ३ कांक्षामोहनीय के बन्धादि किसी प्रकार की असंगति नहीं है । प्रमाद की उत्पत्ति योग से अर्थात् मन वचन काया के व्यापार से होती है । मद्य आदि के सेवन से तथा मिथ्यात्व आदि के आचरण से जो प्रमाद होता है वह सब मन, वचन और काया के व्यापार से होता है । अतएव प्रमाद की उत्पत्ति मन, वचन और काया के व्यापार से कही गई है। योग वीर्य से उत्पन्न होता है । अन्तराय कर्म के पांच भेदों में वीर्यान्तराय कर्म भी एक है । इस वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से जो शक्ति उत्पन्न होती है उसे वीर्य कहते हैं अर्थात् आत्मा का परिणाम विशेष 'वीर्य' कहलाता है। वीर्य की उत्पत्ति शरीर से होती है । यहां पर यह शंका की जा सकती है किवीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से वीर्य उत्पन्न होता है और अलेशी केवली भगवान् इस कर्म का क्षय कर चुके हैं । ऐसी दशा में उन्हें सवीर्य कहना चाहिए या निर्वीर्य ? . इस शंका का समाधान यह है-वीर्य के दो भेद हैं-सकरण वीर्य और अकरणवीर्य । अलेशी केवली भगवान् में जो वीर्य विद्यमान है, वह अकरण वीर्य कहलाता है । यहां इस अकरण वीर्य का प्रकरण नहीं है । यहाँ 'मकरण वोर्य' का ग्रहण किया गया है । लेश्या वाले जीव का मन, वचन और काया रूप साधन वाले आत्म प्रदेशों के परिस्पन्द रूप व्यापार को 'सकरण वीर्य' कहते हैं । करण का अर्थ है साधन । जिसका साधन मन, वचन, काया का व्यापार है उसे. सकरण वीर्य कहते हैं । यह वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है, बिना शरीर के नहीं हो सकता। शरीर किससे उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! शरीर, जीव से उत्पन्न होता है। शरीर की उत्पत्ति का कारण अकेला जीव ही नहीं है, किन्तु कर्म भी है, तथापि कर्म को भी करने वाला जीव ही है । जीव सब में प्रधान-मुख्य है। इसलिए यहां शरीर का उत्पादक कारण केवल जीव ही बतलाया है। - यहाँ प्रसंगवश गोशालक मत का निषेध करते हुए कहा है-गोशालक के मत में पुरुषार्थ आदि कुछ नहीं है। उनका मत है कि जीव के पुरुषार्थ करने से कुछ नहीं होता है। जो कुछ होता है वह नियति (होनहार) से ही होता है । जैसा कि नियतिवादी का कथन है प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुमोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नामव्यं भवति न माविनोऽस्ति नाशः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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