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________________ भगवती सूत्र-श. १ उ. ७ नारक जीवों के आहारादि २९१ देश; एक देश से मर्व, मर्व से एक देश और सर्व से सर्व । इसमें चौथा विकल्प स्वीकार किया गया है । इसका कारण यह है कि-जब उपादान पूर्ण होता है तब वस्तु भी पूर्ण ही उत्पन्न होती है। इसलिए जीव भी सर्व से मर्व उत्पन्न होता है। उत्पन्न होने के पश्चात् आहार की आवश्यकता रहती है, इसलिए गौतमस्वामी ने आहार के विषय में प्रश्न किया है । भगवान् ने. उत्तर फरमाया कि-हे गौतम ! सर्व भाग से एक देशाश्रित आहार करते हैं और सर्व भाग से सर्व भागाश्रित आहार करते हैं । यही बात वैमानिकों तक-समझनी चाहिए। जीव जिस समय उत्पन्न होता है उस समय में-जन्म के प्रथम समय में, अपने सर्व आत्मप्रदेशों के द्वारा सर्व आहार को ग्रहण कर लेता है। जैसे-तपी हुई तेल की कड़ाई में छोड़ा हुआ मालपूआ प्रथम क्षण में लेने योग्य तेल को सर्व रूप से ग्रहण करता है-खींचता है । इसलिए जीव की उत्पत्ति के प्रथम समय में 'सव्वेगं सव्वं आहारेइ' विकल्प घटिन , होता है। उत्पत्ति के बाद वह जीव कितनेक पुद्गलों का आहार करता है और कितनेक पुद्गलों को छोड़ देता है । जैसे कि-तपी हुई तेल की कड़ाई में मालपुआ डाल देने के बाद वह मालपूआ कुछ तेल को चूसता है और कुछ को नहीं चूसता । इसलिए उत्पत्ति के बाद 'सव्वेणं देसं आहारेइ' विकल्प घटित होता है। उत्पाद का प्रतिपक्षी उद्वर्तन हैं। इसलिए गौतम स्वामी ने इस विषय में पूछा कि-हे भगवन् ! जब जीव की नरक स्थिति पूरी हो जाती हैं, तब वह वहां से उद्वर्तता - निकलता है, तो किस प्रकार निकलता है ? क्या देश से देश ? या देश से सर्व ? या सर्व से देश ? या सर्व से सर्व निकलता है ? भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! जिस प्रकार उत्पाद के विषय में कहा है उसी प्रकार उद्वर्तन-निकलने के विषय में भी समझना चाहिए। तब गौतम स्वामी ने पूछा कि-हे भगवन् ! नरक से निकलता हुआ नारकी, क्या देश से देश का आहार करता है ? या देश से सर्व, या सर्व से देश. या सर्व से सव का आहार करता है ? भगवान् ने फरमाया कि-इस विषय में भी पहले की तरह ही समझना चाहिए अर्थात् देश से देश का नहीं और देश से सर्व का आहार नहीं करता, किंतु सर्व से देश का और सर्व से सर्व का आहार करता है। जिस प्रकार 'उत्पन्न होता है और उद्वृत्त होता है' यह वर्तमान काल को लेकर प्रश्नोत्तर किये गये हैं, उसी तरह 'उत्पन्न हुआ और उद्वृत्त हुआ,' इस भूतकाल को लेकर भी प्रश्नोत्तर किये गये हैं। इस तरह यहां आठ दाटक (आलापका-मंग) बने हैं। यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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