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________________ भगवती सूत्र - श. २ उ. २ समुद्घात वर्णन उत्तर- १९ हे गौतम ! समुद्घात सात कही गई हैं। यथा-वेदना समुद्धात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तेजस् समुद्घात, आहारक समुद्घात, केवली समुद्घात । यहाँ पर प्रज्ञापना सूत्र का छत्तीसवाँ समुद्घात पद कहना चाहिए, किन्तु उसमें आया हुआ छद्मस्थ समुद्घात का वर्णन यहाँ नहीं कहना चाहिए। इस तरह वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए । कषाय समुद्घात और अल्पबहुत्व कहना चाहिए । प्रश्न- २० हे. भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार के केवली समुद्घात यावत् शाश्वत अनागतकाल पर्यन्त रहती है ? २० उत्तर - हे गौतम! यहाँ पर भी ऊपर कहे अनुसार समुद्घात पद जान लेना चाहिए । विवेचन - प्रथम उद्देशक में 'मरण' का कथन किया गया है । मरण दो प्रकार से होता है— मारणान्तिक समुद्घात पूर्वक और मारणान्तिक समुद्घात बिना । इसलिए इस दूसरे उद्देशक में 'समुद्घात' का वर्णन किया जाता है । ४५१ समुद्घात - वेदना आदि के साथ एकाकार हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले वेदनीय आदि कर्म-प्रदेशों को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर प्रबलता पूर्वक उनकी निर्जरा करना 'समुद्घात' कहलाता है। इसके सात भेद हैं । यथा; - - १ वेदना समुद्घात - वेदना के कारण से होने वाले समुद्घात को वेदना समुद्घात कहते हैं । यह असाता वेदनीय कर्मों के आश्रित होता है। तात्पर्य यह है कि वेदना से पीड़ित जीव, अनन्तानन्त कर्म स्कन्धों से व्याप्त अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और उनसे मुख उदर आदि छिद्रों को और कान स्कन्धादि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और विस्तार में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरता है । उस अन्तर्मुहूर्त में प्रभूत असातावेदनीय कर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है । २ कषाय समुद्घात - क्रोधादि कषाय के कारण से होने वाले समुद्घात को कषाय समुद्घात कहते हैं । यह समुद्घात मोहनीय के आश्रित है अर्थात् तीव्र कषाय के उदय से व्याकुल जीव, अपने आत्म प्रदेशों को बाहर निकाल कर और उनसे मुख उदर (पेट) आदि के छिद्रों को एवं कान और स्कन्ध आदि के अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई और चौड़ाई में शरीर परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और प्रभूत कषाय पुद्गलों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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