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भगवती सूत्र - श. १ उ. २ बेइन्द्रियादि में आहारादि
के हैं - सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि ) । उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं वे दो प्रकार के हैं- असंयत और संयतासंयत । उनमें जो संयतासंयत हैं उन्हें तीन क्रियाएँ लगती हैं । वे इस प्रकार हैं- आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । उनमें जो असंयत हैं उन्हें अप्रत्याख्यानी क्रिया सहित चार क्रियाएँ लगती हैं । उनमें जो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं उन्हें पाँच क्रियाएँ लगती हैं ।
विवेचन - अप्काय, ते काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय का वर्णन पृथ्वीकाय के समान समझना चाहिए। इनमें अल्पशरीर और महाशरीर अपनी अपनी अवगाहना की अपेक्षा समझना चाहिए । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय जीवों में कवलाहार भी होता है ।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि वाले जीवों के लिए जो यह बात कही गई है- 'जो महाशरीर वाले हैं वे बारम्बार आहार करते हैं और बारम्बार श्वासोच्छ्वास लेते हैं ।' यह बात संख्यात वर्ष की आयु वालों की अपेक्षा से समझनी चाहिए, यहां पर असंख्यात वर्ष की आयु वाले नहीं लेना चाहिए, क्योंकि उनका प्रक्षेपाहार छट्टभत्त-दो दिन के अन्तर से होता है ।
अल्पशरीर वालों के जो कदाचित् कहा है वह अपर्याप्त अवस्था में लोमाहार और श्वासोच्छ्वास न होने से कहा गया है। पर्याप्त अवस्था में ये दोनों होते हैं, इसलिए 'बारम्बार' कहा है ।
पूर्वोत्पन्न जीव अल्पकर्मी और पश्चादुत्पन्न जीव महाकर्मी होते हैं । यह जो कहा गया है वह आयुष्यादि तद्भववेद्य कर्मों की अपेक्षा समझना चाहिए ।
वर्ण और लेश्या सूत्र में पूर्वोत्पन्न जीवों के जो शुभवर्णादि कहे गये हैं, वे युवावस्था 'की अपेक्षा समझना चाहिए। और पश्चादुत्पन्न जीवों में जो अशुभ वर्णादि कहे गये हैं वे बचपन की अपेक्षा समझना चाहिए । लोक व्यवहार में इसी प्रकार देखा जाता है ।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में सम्यग्दृष्टि संयतासंयत ( देशविरत श्रावक ) के तीन क्रियाएँ होती हैं । सम्यग्दृष्टि असंयत के चार क्रियाएँ होती है । मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि जीवों के पाँचों क्रियाएँ होती हैं ।
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