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________________ - भगवती सूत्र-श. १ उ. २ उपपात उपघात हो ऐसा आचरण नहीं करते हैं । अतएव सकषाय और सप्रमाद होने पर भी साधु आराधक संयमी हो सकता है। जिसने महाव्रतों को ग्रहण करके उनका भली प्रकार पालन नहीं किया है और जिसने संयम की विराधना की है, ऐसा विराधित संयमी यदि देवलोक में जाय तो जघन्य भवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्म कल्प उत्पन्न में होता है। अविराधित सयमासंयमी अर्थात् जिस समय से देशविरति को ग्रहण किया है, उस समय से अखण्डित रूप से उसका पालन करले वाला, दोषों के शुद्धिकरण से शुद्ध व्रत वाला आराधक श्रावक यदि देवलोक में उत्पन्न हो, तो जघन्य सौधर्म कल्प में और उत्कृष्ट अच्युत कल्प (बारहवें देवलोक) में उत्पन्न होता है । विराधित संयमासंयमी (श्रावकव्रतों की विराधना करनेवाला) जघन्य भवनवासी में और उत्कृष्ट ज्योतिषियों में उत्पन्न होता है। _असंज्ञी जीव अर्थात् जिसके मनो-लब्धि नहीं हैं. ऐसा असंज्ञी जीव, अकाम निर्जरा करता है, (निर्जरा के उद्देश्य बिना कष्ट सहन करता है) वह यदि देवगति में जाय तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरों में जाता है। . - शेष तापस आदि आठ प्रश्नों के उत्तर में भगवान् ने फरमाया है कि यदि ये देवगति में जावें, तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट भिन्न-भिन्न स्थानों में जाते हैं । तापस आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है तापस-वृक्ष आदि से गिरे हुए पत्तों को खाकर उदर निर्वाह करने वाला तापस, यानी बाल तपस्वी कहलाता है । वह उत्कृष्ट ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है। कान्दर्पिक-जो साधु हंसोड़ हो-हास्य के स्वभाव वाला हो । ऐसे साधु चारित्रवेश में रहते हुए भी हास्यशील होने के कारण अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ करते हैं । भौंह, आँख, मुख, होठ, हाथ, पैर आदि से ऐसी चेष्टा करते हैं कि जिससे दूसरों को हंसी आवे, कन्दर्प अर्थात् कामसम्बन्धी वार्तालाप करे, उनको कान्दर्पित कहते हैं । ऐसे कान्दर्पिक साधु देवों में जावे तो उत्कृष्ट सौधर्म कल्प में उत्पन्न होते हैं और वे उसी प्रकार के कान्दर्पिक देव होते हैं । - चरक परिव्राजक-गेरु से या और किसी पृथ्वी के रंग से वस्त्र रंग कर उसी वेश से धाटी (एक प्रकार की भिक्षा) द्वारा आजीविका करने वाले त्रिदण्डी, चरक परिव्राजक कहलाते हैं । अथवा कुच्छोटक आदि चरक कहलाते हैं और कपिल ऋषि के शिष्य परिवाजक कहलाते हैं । ये यदि देवलोक में उत्पन्न हों, तो उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प (पांचवें देवलोक) तक उत्पन्न हो सकते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004086
Book TitleBhagvati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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