Book Title: Bhagvati Sutra Part 01
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 551
________________ भगवती सूत्र - श. २ उ १० धर्मास्तिकायादि का स्पर्श का निषेध करना चाहिए। जिस तरह धर्मास्तिकाय की स्पर्शना कही, उसी तरह अधर्मास्तिकाय और लोकाकाशास्तिकाय की स्पर्शना का भी कहना चाहिए। ५३२ गाथा का अर्थ इस प्रकार है- पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात, कल्प, ग्रैवेयक, अनुत्तर और सिद्धि तथा सात अवकाशान्तर, इनमें से अवकाशान्तर तो धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करते हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं । विवेचन - रत्नप्रभा पृथ्वी, उसका घनोदधि, घनवात और तनुवात और अवकाशान्तर । इस तरह रत्नप्रभा के पाँच सूत्र होते हैं । इस प्रकार प्रत्येक पृथ्वी के पाँच पाँच सूत्र कहने से, सात पृथ्वियों के पैंतीस सूत्र होते हैं, बारह देवलोकों के बारह सूत्र, नवग्रैवेयक की तीन त्रिक के तीन सूत्र, पाँच अनुत्तर विमानों का एक सूत्र और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का एक सूत्र, ये सब मिल कर ५२ सूत्र होते हैं । इन सभी सूत्रों में 'क्या धर्मास्तिकाय के । संख्येय भाग को स्पर्श करता है - इस प्रकार अभिलाप कहना चाहिए । इस प्रश्न का उत्तर यह हैं कि-अवकाशान्तर, संख्येय भाग को स्पर्श करते हैं और शेष सब असंख्य भाग को स्पर्श करते हैं । अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के विषय में भी इसी तरह सूत्र कहने चाहिए । । दूसरे शतक का दसवां उद्देशक समाप्त ॥ ॥ द्वितीय शतक समाप्त ॥ ॥ प्रथम भाग Jain Education International For Personal & Private Use Only सम्पूर्ण ॥ www.jainelibrary.org

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