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भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका - गौतमस्वामी को शंका
आलोएइ - आलोचना की ।
भावार्थ - राजगृह नगर में भिक्षा के लिए फिरते हुए गौतम स्वामी ने बहुत से मनुष्यों के मुख से इस प्रकार सुना - "हे देवानुप्रियों ! तुंगिया नगरी के बाहर पुष्पवती नामक उद्यान में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त पधारे हुए हैं। उनसे तुंगिया नगरी के श्रावकों ने इस प्रकार प्रश्न पूछा कि हे भगवन् ! संयम का क्या फल है और तप का क्या फल है ? तब उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार उत्तर दिया कि - हे देवानुप्रियों ! संयम का फल अनाश्रवपन है और तप का फल व्यवदान ( कर्मों का विनाश ) है । ( सारा वर्णन पहले की तरह कहना चाहिए ) । यावत् पूर्वतप, पूर्वसंयम, कर्मिपन और संगीपन से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । यह बात सत्य है, इसलिए कही है, किन्तु हमने अपने अभिमान के वश नहीं कही हैं ।" यह बात कैसे मानी जा सकती है ? इस तरह लोगों के मुख से गौतम स्वामी ने सुना । यह बात सुनकर गौतम स्वामी के मन में श्रद्धा - जिज्ञासा उत्पन्न हुई यावत् उस बात के प्रति उन्हें कुतूहल उत्पन्न हुआ ।
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इसके बाद गौतमस्वामी भिक्षा की विधि के अनुसार मिक्षा लेकर राजगृह नगर से बाहर निकले । ईर्यासमितिपूर्वक चलते हुए गौतमस्वामी गुणशीलक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित हुए । उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, मिक्षा लेने में लगे हुए दोषों का आलोचन किया। फिर लाया हुआ आहार पानी श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को दिखलाया । तत्पश्चात् गौतमस्वामी ने भगवान् से इस प्रकार निवेदन किया कि हे भगवन् ! में आपकी आज्ञा लेकर राजगृह नगर में ऊंच, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षा की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के लिए फिर रहा था । उस समय बहुत से मनुष्यों के मुख से इस प्रकार सुना कि - हे araप्रय ! तुंगिया नगरी के बाहर पुष्पवती उद्यान में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त पधारे हुए हैं। उनसे वहाँ के श्रावकों ने इस
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