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भगवती सूत्र-श. २ उ. १० आकाश के भेद
अचक्षुदर्शन के अनन्त पर्याय, अवधिदर्शन के अनन्त पर्याय और केवलदर्शन के अनन्त पर्याय, इन सब के उपयोग को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का उपयोग लक्षण है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम वाला जीव, आत्मभाव से जीवत्व को दिखलाता है-प्रकाशित करता है। . विवेचन-'जीवास्तिकाय उपयोग गुण वाला है।' यह बात पहले के प्रकरण में कही गई है । अब जीवास्तिकाय का एक देशरूप एक जीव उत्थानादि वाला है, यह बात बतलाई गई है। यहाँ मूलपाठ में 'सउट्ठाणे, सकम्मे' इत्यादि जीव के विशेषण दिये गये हैं, इससे मुक्त (सिद्ध) जीव का यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि मुक्त जीव में उत्थानादि नहीं होते हैं । यहाँ संसारी जीव का ग्रहण किया गया है। ...
_'आत्मभाव' का अर्थ है-उत्थान (उठना),शयन, गमन, भोजन आदि रूप आत्मपरिणाम । इस प्रकार के आत्मपरिणाम द्वारा जीव, जीवत्व (चैतन्य) को दिखलाता है, क्योंकि जब विशिष्ट चेतना शक्ति होती है तभी विशिष्ट उत्थानादि होते हैं।
बुद्धिकृत विभाग को पर्यव (पर्यय-पर्याय) कहते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान के ऐसे - पर्यव अनन्त हैं । इसलिए उत्थानादि भाव में वर्तता हुआ आत्मा, आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) सम्बन्धी अनन्त पर्यवों के उपयोग को आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यव रूप एक प्रकार के चैतन्य को प्राप्त करता है।
शंका-उत्थानादि आत्मभाव में वर्तता हुआ जीव, आभिनिबोधिक ज्ञान के उपयोग को प्राप्त करता है, तो क्या उसने अपने चैतन्य को प्रकाशित किया-ऐसा कहना चाहिए?
समाधान-इसके लिए मूलपाठ में ही कहा है-'उवओगलक्खणे जीवे' अर्थात् जीव का उपयोग लक्षण है। इसीलिए उत्थानादिरूप आत्मभाव द्वारा उपयोगरूप जीवत्व को दिखलाता है । ऐसा कहना चाहिए।
आकाश के भेद
६५ प्रश्न कइविहे णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? ६५ उत्तर-गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहाः-लोया
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