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भगवती सूत्र-श. २ उ. १० जीव का स्वरूप
औदारिकादि अनेक पुद्गलों के साथ जीव का सम्बन्ध होता है, अथवा प्राणधारी जीव, औदारिक आदि अनेक प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण किया करता है।
जैसे-चक्र का खण्ड (चक्र का एक भाग) चक्र नहीं कहलाता है। किन्तु वह चक्रखण्ड कहलाता है । सम्पूर्ण चक्र को ही-'चक्र' कहते हैं। इसी तरह से जबतक एक प्रदेश की भी कमी हो वहाँ तक उसे धर्मास्तिकाय नहीं कहते है परन्तु जब सभी पूरे प्रदेश हों, तभी उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं जब वस्तु पूरी हो तभी वह वस्तु कहलाती है, किन्तु अधूरी वस्तु, वस्तु नहीं कहलाती है। यह निश्चय नय का मत है । व्यवहार नय की दृष्टि से तो थोड़ी सी अधूरी वस्तु को भी पूरी वस्तु कहा जा सकता है । व्यवहार नय घड़े के टुकड़े को भी घड़ा कहता है । जिस कुत्ते के कान कट गये हों अर्थात् जो कुत्ता बुच्चा हो उसको 'कुत्ता' ही कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु का एक भाग विकृत हो गया हो, वह वस्तु, अन्य वस्तु नहीं हो जाती, किन्तुं वह वही मूलवस्तु कहलाती है, क्योंकि उसमें उत्पन्न विकार मूल वस्तु की पहचान में बाधक नहीं होता है । इस प्रकार व्यवहार नय का मन्तव्य है ।
धर्मास्तिकाय के प्रदेश सब हों, कृत्स्न (पूरे के पूरे) हों, प्रतिपूर्ण हों अर्थात् अपने अपने स्वभाव में प्रतिपूर्ण हो, निरवशेष हो अर्थात् प्रदेशान्तर से भी अपने स्वभाव से कम-न हों और धर्मास्तिकायरूप एक शब्द से कहे जा सकते हों उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं । इसी तरह अधर्मास्तिकाय के विषय में भी समझना चाहिए । धर्मास्तिकाय के प्रदेश . असंख्यात हैं और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश भी असंख्यात हैं । आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, इन तीनों के प्रदेश अनन्त अनन्त हैं । धर्मास्तिकाय की तरह इन तीनों के भी अपने अपने अनन्त प्रदेशों के समह को क्रमशः आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय कहते हैं।
जीव का स्वरूप
६३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीतिवत्तव्वं सिया ?
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