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भगवती मूत्र-श. २ उ. ६ भाषा विषयक मान्यता
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शतक २ उद्देशक ६
भाषा विषयक मान्यता ४८ प्रश्न-से णूणं भंते ! मण्णामि इति ओहारिणी भासा ? ४८ उत्तर-एवं भासापदं भाणियव्वं ।
॥ छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो॥ _ विशेष शब्दों के अर्थ-मण्णामि-मानता हूँ, ओहारिणी-अवधारिणी भाषा, माणियवं-कहना चाहिए।
भावार्थ-४८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भाषा अवधारिणी है ? ऐसा मैं मान लूं? . .
. ४८ उत्तर-हे गौतम ! उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापना सूत्र का . ग्यारहवें भाषापद का सारा वर्णन करना चाहिए।
विवेचन-पांचवें उद्देशक के अन्त में यह बतलाया गया है कि-अन्यतीर्थिक मिथ्याभाषी हैं । मिथ्याभाषिपन और सत्यभाषिपन, भाषा के बिना नहीं हो सकता है। इसलिए इस छठे उद्देशक में भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार किया गया है।
गौतम स्वामी ने . प्रश्न पूछा कि-हे भगवन् ! क्या मैं इस प्रकार मान लूं कि भाषा अवधारिणी है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि-हे गौतम ! भाषा के सम्बन्ध में प्रज्ञापना सूत्र का ग्यारहवाँ भाषापद पूरा कहना चाहिए।
प्रज्ञापना सूत्र के ग्यारहवें भाषापद में अनेक द्वारों से 'भाषा' का वर्णन किया गया है । भाषा के चार भेद हैं-सत्य भाषा, असत्य भाषा, सत्यमृषा भाषा-मिश्र भाषा, असल्य अमृषा भाषा-व्यवहार भाषा। भाषा का आदि कारण (मूल कारण)जीव है । भाषा की उत्पत्ति शरीर से (औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर से) होती है । भाषा का संस्थान वज्र के आकार है। भाषा के पुद्गल लोक के अन्त तक जाते हैं । अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध पुद्गल भाषापने गृहीत होते हैं । असंख्यात आकाश प्रदेशों को अवगाहित पुद्गल भाषापने गृहीत. होते हैं । एक समय, दो समय यावत् दस समय, संख्यात और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल भाषापने गृहीत होते हैं । वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले पुद्गल
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