Book Title: Bhagvati Sutra Part 01
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 533
________________ ५१४ भगवती सूत्र-श. २ उ. १० जीवास्तिकाय का वर्णन क्षेत्र की अपेक्षा धर्मास्तिकाय लोक प्रमाण है । काल की अपेक्षा धर्मास्तिकाय कभी नहीं था-ऐसा नहीं, कभी नहीं है-ऐसा नहीं, कभी नहीं रहेगा-ऐसा भी नहीं, किन्तु वह था, है और रहेगा, यावत् वह नित्य है । भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं । गुण की अपेक्षा गति गुण वाला है। जिस तरह धर्मास्तिकाय का कथन किया है उसी तरह अधर्मास्तिकाय के विषय में भी कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि अधर्मास्तिकाय गुण की अपेक्षा स्थिति गुण वाला है। आकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि आकाशास्तिकाय क्षेत्र की अपेक्षा लोकालोक प्रमाण (अनन्त) है और गुण की अपेक्षा अवगाहना गुण वाला है। ५६ प्रश्न-जीवत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे ? ५६ उत्तर-गोयमा ! अवण्णे, जाव-अरूवी, जीवे सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते तं जहाः-दव्वओ, जाव-गुणओ। दबओ णं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं, खेतओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाइ न आसी, जाव-निच्चे, भावओ पुण अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे, गुणओ उवओगगुणे । . विशेष शब्दों के अर्थ-कति-कितने, समासओ-संक्षेप से, अवदिए-अवस्थित। भावार्थ-५६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? ५६ उत्तर-हे गौतम ! जीवास्तिकाय में वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श नहीं है। वह अरूपी है, जीव है, शाश्वत है और अवस्थित लोकान्य है । संक्षेप में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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