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भगवती सूत्र - श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों के प्रश्नोत्तर
अनाश्रव बतलाया है । अनाश्रव का अर्थ है - नवीन आने वाले कर्मों को रोक देना । संयम का फल 'व्यवदान' है । 'व्यवदान' शब्द में 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग हैं और 'दान'' शब्द 'दाप् लवने' और 'दैप् शोधने' इन दोनों धातुओं से बनता है । जिसका अर्थ है-कर्मों को काटना एवं पूर्वकृत कर्म रूपी कचरे को साफ करना, या कर्म रूपी कीचड़ से मलीन आत्मा को शुद्ध करना ।
किस कारण से देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में 'पूर्वतन' और 'पूर्व संयम' कहा गया है । जिसका अर्थ है - वीतराग दशा से पूर्व पहले किया गया तप ( सराग तप) और संयम ( सराग संयम ) । राग का अंश कर्म बन्ध का कारण होता है । इसलिए सराग दशा में सेवित तप और आचरित संयम, ये दोनों देव होने में कारण होते हैं। तीसरा कारण है-कर्मिता या कर्मिका । कर्मिता का अर्थ है - कर्मपना और कर्मिका का अर्थ है-कर्म विकार अर्थात् शेष रहे हुए कर्मों का अंश । इससे भी देवपन की प्राप्ति. होती है । चौथा कारण है - संगिता । इसका अर्थ है - द्रव्यादि में राग भाव | यह कर्मबन्ध का कारण होने से देवपन का कारण होता है । जैसा कि कहा है
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पुव्वतव संजमा होंति रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रांगो संगो वृत्तो, संगा कम्मं भवो तेणं ॥
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अर्थ- सरागी जीव के तप और संयम 'पूर्व तप' और 'पूर्व संयम' कहलाते हैं और वीतरागी जीव के तप संयम 'पश्चिम तप' और 'पश्चिम संयम' कहलाते हैं । राग से संग होता है संग से कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्ध से संसार परिभ्रमण होता है ।
स्थविर भगवन्तों ने जो उत्तर दिया। उसके विषय में उन्होंने कहा कि यह बात सत्य है, क्योंकि यह बात वस्तु स्वरूप को लक्ष्य में रख कर कही गई है, किन्तु यह बात हम अपना बड़प्पन बतलाने के लिए अभिमानवश नहीं कहते हैं ।
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तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरिया समाणा हट्ट तुट्टा थेरे भगवंते वंदति नर्मसंति, वंदित्ता नमसित्ता परिणाई पुच्छंति, पसिणा पुच्छित्ता अट्ठाई उवादियंति, उवादिएत्ता उट्ठाए उट्ठेति, उट्ठित्ता थेरे भगवंते तिक्खुत्तो
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