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भगवती सूत्र - श. २ उ ५ तुंगिका - गौतम स्वामी को शंका ४८५
विशेष शब्दों के अर्थ - संखित्त विउलते उलेस्से - विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके रखा है, अतुरियं - शारीरिक त्वरता = शीघ्रता रहित, अचवलं - मानसिक चपलता रहित, असंभंते – असम्भ्रान्त = आकुलता और उत्सुकता रहित, मुहपोत्तियं - मुखवस्त्रिका = आठ परत वाला कपड़ा, जो डोरे से मुख पर बांधा जाता है, जुगंतर - युगान्तर = धूसरा परिमाण, भिक्खायरियं - भिक्षाचर्या के लिए, अडइ - फिरते हैं ।
भावार्थ -- उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था । वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे । परिषद् वन्दना करने के लिए गई और यावत् धर्मोपदेश सुन कर वापिस लौट गई ।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे । यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखने वाले थे । वे निरन्तर छुट्टछट्ट का तप करते हुए अर्थात् निरन्तर बेले बेले की तपस्या करते हुए संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे ।
इसके बाद बेले के पारणे के दिन इन्द्रभूति अनगार ने अर्थात् भगवान् गौतम स्वामी ने पहली पौरिसी में स्वाध्याय किया, दूसरी पौरिसी में ध्यान ध्याया, तीसरी पौरिसी में शारीरिक शीघ्रता रहित, मानसिक चपलता रहित, आकुलता और उत्सुकता रहित होकर मुखवस्त्रिका की पडिलेहना की, फिर पात्रों की और वस्त्रों की पडिलेहना की। फिर पात्रों का परिमार्जन किया, परिमार्जन करके पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बिराजे हुए थे वहाँ आये । वहाँ आकर भगवान् को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया कि — हे भगवन् ! आज मेरे बेले के पारणे का दिन है सो आपकी आज्ञा होने पर में राजगृह नगर में ऊंच नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के लिये जाना चाहता हूँ ?
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा कि - हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो उस प्रकार करो, विलम्ब न करो ।
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