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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक-गुणरत्न संवत्सर तप
'अहाकप्पं' पडिमा के 'कल्प के अनुसार अथवा जिस तरह से कल्प की वस्तु है उस तरह से । ' अहामग्गं' ज्ञानादि रूप मोक्ष मार्ग की मर्यादापूर्वक अथवा क्षायोपशमिक भाव के अनुसार । ' अहातच्चं' अर्थात् तत्त्व के अनुसार यानी ' मासिकी भिक्षुप्रतिमा' इत्यादि उन उन शब्दों के अनुसार। 'अहासम्म' अर्थात् समभावपूर्वक । 'काएणं फासेई' अर्थात् केवल मनोरथ मात्र से नहीं, किन्तु उचित समय में विधिपूर्वक शरीर द्वारा प्रवृत्ति करके ग्रहण करते हैं । 'पालेइ' अर्थात् बारम्बार उपयोगपूर्वक सावधानतापूर्वक पालन करते हैं। 'सोहेइ' अर्थात् पारणे के दिन गुरु महाराज आदि द्वारा दिये हुए आहार को खाकर व्रत को शोभित करते हैं अथवा व्रत में दूषण रूप कचरा न आने देने से व्रत को शोधित करते हैं । 'तीरेइ' व्रत की मर्यादा पूरी हो जाने पर भी थोड़े समय तक ठहरते हैं । 'पूरेइ' अर्थात् उस व्रत की मर्यादा पूर्ण हो जाने पर भी उस व्रत सम्बन्धी कार्यों के परिमाण को पूरा करते हैं । 'किट्टई' अर्थात् 'व्रत सम्बन्धी अमुक अमुक कार्य हैं उनको मैंने पूरा कर लिया है, इस प्रकार पारणे के दिन व्रत का कीर्तन (महिमा) करते हैं।' 'अणुपालेइ' अर्थात् व्रत पूर्ण हो जाने पर उसकी अनुमोदना-प्रशंसा करते हैं, एवं आज्ञापूर्वक व्रत की आराधना करते हैं।
तए णं से खदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भगुण्णाए समाणे जाव-णमंसित्ता गुणरयणसंवच्छरतवोकम्म उव. संपजित्ता णं विहरइ । तं जहाः-पढमं मासं चउत्थंचउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुहुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रतिं वीरासणेणं अवाउडेण य। एवं दोच्चं मासं छटुंछटेणं अणिक्सित्तेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेण य। एवं तच्चं मासं अट्ठमंअट्टमेणं, चउत्थं मासं दसमंदसमेणं, पंचमं मासं बारसमंबारसमेणं, छटुं मासं चउद्दसमंचउद्दसमेणं, सत्तमं मासं सोलसमंसोलसमेणं,
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