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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का प्रतिमा आराधन
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अवश्य प्राप्त कर लेता है, क्योंकि इस पडिमा में महान् कर्म समूह का क्षय होता है। यह पडिमा हित के लिए, शुभ के लिए, क्षमा के लिए, ज्ञानादि प्राप्ति के लिए एवं मोक्ष के लिए होती है ।
इस पडिमा का यथासूत्र, ययाकल्प, यथातथ्य, सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर, पालन कर, अतिचारों की शुद्धि कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर, आराधन करते हुए भगवान्
की आज्ञा के अनुसार पालन किया जाता है । - स्कन्दक मुनि ने इन पडिमाओं का यथाविधि पालन किया। __.यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि स्कन्दक मुनि ने तो ग्यारह अंगों का ज्ञान ही पढ़ा है, किंतु भिक्षुपडिमाओं का पालन, तो विशिष्ट श्रुतवान् ही कर सकते हैं । जैसा कि कहा है
गच्छे च्चिय णिम्माओ जा पुण्या बस भवे असंपुण्णा ।
णवमस्स तईयवत्थू होइ जहण्णओ सुयाहिगमो ॥ अर्थ-जिसने गच्छ में रह कर पडिमाओं को स्वीकार करने के लिए अच्छी तरह अभ्यास किया है, तथा जिसको दस पूर्व से कुछ कम ज्ञान है अथवा जघन्य नववें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु (अध्ययन विशेष) तक ज्ञान है, वही पडिमाओं को अंगीकार कर सकता है, तब स्कन्दक मुनि को तो एक भी पूर्व का ज्ञान नहीं था, फिर उन्होंने पडिमाएं कैसे अंगीकार की ?
इस शंका का समाधान यह है कि यह नियम सूत्र-व्यवहारी पुरुषों के लिए है। स्कन्दक मुनि को पडिमा अंगीकार करने की आज्ञा देने वाले स्वयं तीर्थङ्कर भगवान् थे । इसलिए यह नियम उनके लिए लागू नहीं पड़ता। स्कन्दक मुनि ने भगवान् की आज्ञा से पडिमाएँ अंगीकार की थी। अतएव इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है ।
__'अहासुत्तं' आदि शब्दों का सामान्य अर्थ पहले दिया गया है । टीकाकार ने जो विशेष अर्थ दिया है वह इस प्रकार है- 'अहासुत्त' अर्थात् सामान्य सूत्र में कहे अनुसार।
- + भिभुपरिमानों का यह वर्णन बमाश्रुतस्कन्ध ब. . के अनुसार दिया गया है।
.. स्कन्दक मुनिराज तो फिर भी ग्यारह अंग के पाठी थे, किंतु गजसुकुमाल मुनि ने तो दीक्षा लेने , के दिन. ही भिकी बारहवीं प्रतिमा को धारण कर लिया था। उन माशा देने वाले सर्वश भगवान् . अरिष्टनेमिजी थे। सर्वज्ञ भगवान् ऐसी आज्ञा प्रदान करें, तो हो सकता है। सामान्य आचार्यादि को तो विधान का पालन करना उचित है।
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