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भगवती सूत्र ---श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का धर्मजागरण
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की आशा रहित होने के कारण उदार-प्रधान था, बहुत दिनों तक चलने वाला होने से विपुल (विशाल-विस्तीर्ण) था । गुरु महाराज की अनुमति द्वारा आचरित होने के कारण तथा प्रमाद को छोड़ कर प्रयत्न पूर्वक आचरित होने के कारण वह 'प्रदत्त' था, वह तप बहुमानपूर्वक आचरित होने से 'प्रगृहीत' था। तथा वह वल्याणरूप, शिव, धन्य और मंगलरूप था एवं सश्रीक, उदग्र उत्तरोत्तर वृद्धियुक्त, उदात्त, उत्तम, उदार और महानुभाव (महाप्रभाव वाला) था। इस प्रकार के प्रधान तप से स्कन्दक अनगार का शरीर शुष्क, रुक्ष और निर्मास हो गया। उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से वेष्ठित रह गई। . इसलिए चलते समय सूखी एरण्ड की लकड़ियों से तथा ढाक आदि के पत्तों से एवं तिल की सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ियों से जैसे खड़ खड़ की आवाज होती है, उसी तरह स्कन्दक मनि के चलते समय उनकी हड़ियों की खड खड आवाज होती थी। भाषा बोलने के पहले, बोलते समय और बोलने के बाद भी उन्हें ग्लानि-खंद होता था। जिस प्रकार राख में दबी हुई अग्नि बाहर से तेज रहित दिखाई देती है, किन्तु अन्दर से तो वह जलती ही रहती हैं, उसी प्रकार स्कन्दक मुनि का शरीर मांस और रुधिर रहित हो गया था । अतः बाहर से तो निस्तेज मालूम होता था, किन्तु अन्दर तो पवित्र तप द्वारा जाज्वल्यमान था । अतएव वे तप तेज की शोभा से अतीव शोभित हो रहे थे।
___ ते णं काले णं ते णं समए णंरायगिहे नयरे समोसरणं । जावपरिसा पडिगया। तए णं तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णया कयाई पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयासवे अन्झथिए चिंतिए जाव-समुप्पजित्था-एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेण ओरालेणं जाव—किसे धमणिसंतए जाए, जीवंजीवेण गच्छामि, जीवंजीवेण चिट्ठामि, जाव-गिलामि, जाव-एवामेव अहं पि ससदं गच्छामि, ससई चिट्ठामि, तं अस्थि ता मे उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकारपरकमे तं जाव-ता मे अलि उटाणे,
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