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भगवती सूत्र-श. २ उ. १ आर्य स्कन्दक का स्वर्ग गमन
\ है, जिसकी मैंने बाधा-पीड़ा, रोग परीषह उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे
शरीर को भी चरम (अन्तिम) श्वासोच्छ्वास के साथ वोसिराता(त्यागता)हूँ। ऐसे कह कर संलेखना संथारा करके, भक्त पान का सर्वथा त्याग करके, पादपोपगमन संथारा करके, काल (मृत्यु) को आकांक्षा न करते हुए स्थिर रहूँ।
विवेचन: भगवान् की अनुमति लेकर स्कन्दक मुनि विपुल पर्वत पर गये । वहाँ जाकर पृथ्वीशिलापट्ट पर विधिपूर्वक संलेखना करके पादपोपगमन (कटी हुई वृक्ष की डाली की तरह स्थिर रहने रूप) संथारा कर लिया। .
तए णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजित्ता, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगए । तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउसग्ग्गं करेंति, करित्ता पत्त-चीवराणि गिण्हंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ सणियं सणियं पच्चोसकंति, पच्चोसकित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २, समणं भगवं महावीर बंदंति नमसंति, वंदित्तानमंसित्ता एवं वयासीः-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभदए पगइविणीए पगइउवसंते पगईपयणुकोह माण-माया-लोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे भइए विणीए । से णं देवाणुप्पिएहिं अन्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच
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