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भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ तुंगिका के श्रावकों का वर्णन
प्रवचनों पर उनका प्रेम हाडोहाड ( हड्डी और हड्डी की मज्जा में ) व्याप्त हो गया था। इसीलिए वे कहते थे कि-हे आयुष्यमन् बन्धुओं ! "यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही अर्थ है । यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ है।" वे इतने उदार थे कि उनके घरों में दरवाजों के पीछे रहने वाली अर्गला (आगल-भोगल) हमेशा ऊंची रहती थी। उनके दरवाजे हर एक याचक के लिए सदा खुले रहते थे। वे शीलवत (ब्रह्मचर्यव्रत) में ऐसे दृढ़ थे कि वे पर घर में प्रवेश करते और यहाँ तक कि राजा के अन्तःपुर में भी चले जाते, तो भी किसी को अप्रीति एवं अविश्वास उत्पन्न नहीं होता था। वे शीलवत, गुणवत, विरमण व्रत और प्रत्याख्यानों का पालन करते थे। चौदस, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा, इस प्रकार एक मास में वे छह पौषधोपवास करते थे। वे श्रमण निग्रन्थों को उनके कल्पानुसार प्रासुक एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज, आदि का दान देते थे। यथा प्रतिगृहीत-अपनी शक्ति अनुसार ग्रहण किये हुए तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे।
विवेचन-'अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, आसव-संवर-णिज्जर-किरियाअहिकरण-बंध-मोक्ख-कुसला' अर्थात् वे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, कायिकी आदि क्रिया, अधिकरण अर्थात् गाड़ी यन्त्र आदि, शस्त्र, बन्ध और मोक्ष, इनके स्वरूप को भली प्रकार जानते थे तथा इनमें से कौन हेय (छोड़ने योग्य) और कौन उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है ? इस बात को वे भली प्रकार जानते थे ।
. 'असहेज्ज देवा' इत्यादि, अर्थात् वे स्वयं बलवान् होने से दूसरों की सहायता नहीं लेते थे । 'स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यम्' अर्थात् स्वयं का किया हुआ कर्म स्वयं को ही भोगना पड़ता है-ऐसी दृढ़ मनोवृत्ति रख कर दुःख के प्रसंग पर भी वे देवादि की सहायता नहीं लेते थे अथवा वे अपनी प्रतिज्ञा पर ऐसे दृढ़ थे कि देवादि भी उनको अपनी प्रतिज्ञा से चलित नहीं कर सकते थे । अथवा पाखण्डी लोग उन्हें समकित से चलित करने के लिए उन पर आक्रमण करते थे, किन्तु वे निर्ग्रन्थ प्रवचनों में अत्यन्त चुस्त होने के कारण वे पाखण्डियों को परास्त करने में स्वयं समर्थ थे। इस विषय में वे किसी की सहायता नहीं लेते थे । भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव भी उनको निम्रन्थ प्रवचनों
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