Book Title: Bhagvati Sutra Part 01
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 496
________________ भगवती सूत्र-श. २ उ. ५ स्थविर वन्दना की तवारी ४७७ परिहिया, अप्प-महग्याभरणालंकियसरीरा सएहितो सएहिंतो गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता एगयओ मेलायति । विशेष शब्दों के अर्थ-सवणयाए-सुनने से, किमंग-कहना ही क्या अथवा क्या कहना, अभिगमण-सामने जाना, पज्जुवासणया-पर्युपासना = सेवा, गहणयाए-ग्रहण करने से, आणुगामियत्ताए-अनुगामी रूप से अर्थात् परम्परा कल्याण रूप से, उवागच्छंति-निकट आते हैं, कयबलिकम्मा-तिलक छापा आदि कार्य किया, पवरपरिहिया-अच्छी तरह से पहिने । __भावार्थ-हे देवानुप्रियो ! तथारूप के स्थविर भगवन्तों के नाम गोत्र को सुनने से भी महाफल होता है, तो उनके सामने जाना, वन्दना करना, नमस्कार करना, कुशल समाचार पूछना और उनकी सेवा करना यावत् उनसे प्रश्न . पूछकर अर्थों को ग्रहण करना, इत्यादि बातों के फल का तो कहना ही क्या ? इन बातों से कल्याण हो, इसमें कहना ही क्या ? इसलिए हे देवानुप्रियो ! हम सब स्थविर भगवन्तों के पास चलें और उन्हें वन्दना नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। यह कार्य अपने लिए इस भव में और परभव में हितरूप होगा यावत् परम्परा से कल्याणरूप होगा। इस प्रकार बातचीत करके वे श्रमणोपासक अपने अपने घर गये। घर जाकर स्नान किया, फिर बलिकर्म किया अर्थात् स्नान से सम्बन्धित तिलक. छापा आदि कार्य किया। फिर मंगल और कौतुक रूप प्रायश्चित्त किया। फिर सभा आदि में जाने योग्य मंगल रूप शुद्ध वस्त्रों को सुन्दर ढंग से पहना। फिर अपने अपने घर से निकल कर वे सब एक जगह इकट्ठे हुए। विवेचन-मूलपाठ में कयबलिकम्मा' शब्द दिया है । जिसका अर्थ यह है कि-जहाँ स्नान का पूरे रूप. से वर्णन आता है वहाँ 'कयबलिकम्मा' शब्द नहीं आता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि स्नान के विस्तृत वर्णन का अध्याहार करने के लिए 'कयबलिकम्मा' शब्द आता है । ज्ञातासूत्र के दूसरे अध्ययन में भद्रा सार्थवाही के स्नान प्रसंग पर तथा ज्ञाता सूत्र के आठवें अध्ययन में भगवती मल्लिकुमारी तथा सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी के स्नान प्रसंग पर 'कयबलिकम्मा' शब्द आया है। इससे यह स्पष्ट है कि स्नान के विस्तृत अर्थ का अध्याहार करने के लिए ही 'कयबलिकम्मा' शब्द आता है, किन्तु इसका अर्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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